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सिन्दूरप्रकर
श्लो. ७२. प्रस्तुत श्लोक में प्रयुज्यमान धुरीणम्, अवारीणम्, अलङ्कर्मीणम्, पारीणम्, सर्वान्नीनम्, अनात्मनीनम्, अत्यन्तीनम्, यथाकामीनम, अध्वनीनम् शब्दों में ईन प्रत्यय का प्रयोग हुआ है। धुरीणम्-धुरं वहति। यहां ‘परमतमनुमतं स्वमतं भवति' इति मतान्तरेण ईन प्रत्यय होता है। अवारीणम' अवारं गामी, पारीणम्-पारं गामी-इन दोनों प्रयोगों में पारावारेभ्यो गामी' (अष्टा. ७।३।१०१) सूत्र से 'गामी' अर्थ में ईन प्रत्यय तथा न् को ण होता है। अलङ्कर्मीणम्-अलं कर्मणे, ऐसा विग्रह करने पर ‘पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्या (अष्टा. ३१६५) से समास करने पर तत्पश्चात् 'अषडक्षाशितंग्वलंकर्मालंपुरुषादीनः' (अष्टा. ७३।१०७) इस सूत्र से स्वार्थ में ईन प्रत्यय होता है, नकार को णकार। सर्वान्नीनम्-सर्वप्रकारमन्नं सर्वान्नं, तदत्ति-सर्वान्नीनम् यहां 'सर्वान्नादऽत्ति' (अष्टा. ७।३।६९) सूत्र से अत्ति अर्थ में ईन प्रत्यय होता है। अनात्मनीनम्-न आत्मा अनात्मा, तस्मै हितम्-अनात्मनीनम्। यहां 'भोगान्तात्मभ्यामीनः' (अष्टा. ७३।४०) सूत्र से 'तस्मै हितेऽर्थे' ईन प्रत्यय । 'नोऽपदस्य तद्धिते' (अष्टा. ८४६२) सूत्र से टिलोप की प्राप्ति, किन्तु 'अध्वात्मनोरीने' (अष्टा. ८४४६) से टिलोप का निषेध। अत्यन्तीनम्अत्यन्तं भृशं गामी, ऐसा विग्रह करने पर 'यथाकामाऽनुकामाऽत्यन्तात' (अष्टा. ७।३।१०२) सूत्र से गामी अर्थ में ईन प्रत्यय। इसी प्रकार यथाकामीनम्-यथाकामं गामी-यथाकामीनं यथेच्छं गामीत्यर्थः। अध्वनीनम्अध्वानमलंगामी, ऐसा विग्रह करने पर 'अध्वनो येनौ' (अष्टा. ७।३।१०४) सूत्र से 'अलंगामी' अर्थ में ईन प्रत्यय, 'नोऽपदस्य तद्धिते' (अष्टा. ८।४।६२) से टिलोप की प्राप्ति, 'अध्वात्मनोरीने' (अष्टा. ८४४६) से टिलोप का प्रतिषेध। श्लो. ६१. महीध्रः-महीं धरति, ऐसा विग्रह करने पर 'मूलविभुजादयः' (अष्टा. ५।२७७) सूत्र से क प्रत्यय होने पर निपातन से सिद्ध होता है।
१. ग्रन्थ के टीकाकार ने आवारीणं मानकर उसकी व्याख्या इस प्रकार की है-आवरणाय
आच्छादनाय समर्थः आवारीण:-आच्छादकस्तम्।
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