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व्याकरण-विमर्श
लुक्-भस्मन्-च्चि, 'नाम्नो नोऽनह्नः' (अष्टा. २।१।१२१) से न् का लोप तथा 'ईश्च्वाववर्णस्याऽनव्ययस्य' (अष्टा. ४।१।६०) सूत्र से अकार को ईकार-भस्मी च्चि, च् अनुबन्ध, 'वेर्लोपः' (अष्टा. ४१४४८) से वि का लोप तथा प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सि प्रत्यय आने और 'अव्ययस्य' (अष्टा. ३।२७) से सि का लुक् होने पर भस्मीभवति रूप सिद्ध होता है। श्लो. ४०. इस श्लोक में प्रयुक्त तोयति, स्रजति, सारङ्गति, अश्वति, उपलति, पीयूषति, उत्सवति, प्रियति, क्रीडातडागति तथा स्वगृहति-ये सभी नामधातुएं हैं। जैसे तोयमिवाचरति-तोयति। पीयूषमिवाचरति-पीयूषति। क्रीडायास्तडागःक्रीडातडाग इवाचरति-क्रीडातडागति। स्वगृहमिवाचरति-स्वगृहति। इन सभी प्रयोगों में आचार अर्थ में ‘कर्तुः क्विब्....' (अष्टा. ४।१।२०) सूत्र से क्विप्, 'वेर्लोपः' (अष्टा. ४४४८) से लोप तथा 'आयादिव्यन्तः' (अष्टा. १।१।३३) से धातुसंज्ञा होने पर तिप् आदि प्रत्यय लगते हैं। श्लो. ५२. अङ्गभाजाम्-अङ्गं भजते, ऐसा विग्रह करने पर 'भजिसहिवहिभ्यो विण' (अष्टा. ५२१७३) से विण प्रत्यय तथा 'वेर्लोपः' (अष्टा. ४|४|४८) से वि का लोप होने पर-अङ्ग+भज्। तत्पश्चात् भज् धातु के ज् को ग् और ग् को क तथा प्रत्यय का णित् भकार को वृद्धि का सूचक है। प्रथमा विभक्ति के एक वचन का रूप बनेगा-अङ्गभाक्, तेषाम् अङ्गभाजाम्। श्लो. ६८. हिमति-हिममिवाचरति। चण्डाऽनिलति-चण्डः प्रचण्डः, अनिल: वायुः। चण्डश्चासौ अनिलश्च चण्डाऽनिलः, स इवाचरति। द्विरदति- द्विरदवत् गजवदाचरति। वज्रति-वज्र इवाचरति। समिधति-समित्-इन्धनं, तदिवाचरति। कन्दति-कन्द इवाचरति। इन प्रयोगों में 'कर्तुः, विब्.....' (अष्टा, ४।१।२०) सूत्र से क्विप, लोप, 'आयादिव्यन्तः' (अष्टा. १।१।३३) से धातुसंज्ञा, तत्पश्चात् तिबादिप्रत्ययः। श्लो. ६६. शूकलाश्वायते-शूकलः दुर्विनीतः, अश्वः हयः। शूकलश्चासौ अश्वश्च शूकलाश्वः, स इवाचरति । कृष्णसर्पायते-कृष्णसर्प इवाचरति। कुठारायते कुठार इवाचरति। ये नामधातुएं 'क्यङ् (अष्टा. ४।१।२१) सूत्र से क्यङ् प्रत्यय, 'च्चियग्यङ्यादादि....' (अष्टा. ४।१।५१) से पूर्वस्वर को दीर्घ करने पर सिद्ध होती हैं।
शुभंयुः-शुभमस्याऽस्ति, ऐसा विग्रह करने पर 'ऊर्णाह-शुभमः' (अष्टा. ८/१।८६) सूत्र से मतु अर्थे में युस् प्रत्यय, 'सोर्विसर्गः' (अष्टा. २।१।१०३) से सकार को विसर्ग आदेश।
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