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सिन्दूरप्रकर (अष्टा. १।३।४३) सूत्र से पूर्व ध् को द् करने पर-नद्ध। परिपूर्वक नद्ध को 'उपसर्गाण्णोपदेशस्य' (अष्टा. २।२।८५) से न को ण करने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'परिणद्धम्' रूप बनता है। श्लो. १६. इस श्लोक में प्रयुक्त विषवत्, ज्वलनवत्, तमस्तोमवत्, शात्रववत्, भुजगवत्, लोष्ठवत्, ग्रीष्मजवत् शब्दों में वत् प्रत्यय का प्रयोग हुआ है। इन सभी में 'तस्य' (अष्टा. ७।३१५५) सूत्र से इव अर्थ में वत् प्रत्यय होता है। जैसे-विषस्येव-विषवत् पीयूषं मनुते। श्लो. २१. क्षितिधरः-क्षितिं धरति, ऐसा विग्रह करने पर 'धृनः प्रहरणादि...' (अष्टा. ५।२।२३) सूत्र से धृन् को अच् तथा 'नामिनो गुणोऽक्डिति' (अष्टा. ४।२।१) से धृ को गुण करने पर-क्षितिधर्+अच्, ‘स्वरहीनं परेण संयोज्यम्' से क्षितिधर, प्रथमा विभक्ति एकवचन में-क्षितिधरः पर्वत इत्यर्थः।
महीरुहाम्-मयां रोहति, ऐसा विग्रह करने पर 'विप्' (अष्टा. ५२१७९) सूत्र से क्विप्, 'वेर्लोपः' (अष्टा. ४४४८) से वि का लोप होने पर-महीरुह्+सि। 'हसेप: सेर्लोपः' (अष्टा. १।४।२७) से सि विभक्ति का लोप होने पर-महीरुह्, तेषां महीरुहाम् वृक्षाणामित्यर्थः।। श्लो. २२. नमस्यति-नमः करोति-इस विग्रह में 'नमोवरिवश्चित्रङो....' (अष्टा. ४।१।३२) सूत्र से अर्चा अर्थ में करण अर्थ में क्यच् प्रत्यय होता है। श्लो. २८. प्रस्तुत श्लोक में प्रयुज्यमान दीर्घतरम्, वरतरम्, भूरितरम्, बहुतरम् तथा उच्चैस्स्तरम् शब्दों में प्रकृष्ट अर्थ में तर प्रत्यय का प्रयोग हुआ है। इन सभी प्रयोगों में 'द्वयोर्विभज्ये च तरः' (अष्टा. ८।२।२) सूत्र से तर प्रत्यय होता है। एवं गरीयस्तरम्-अयमनयोरतिशयेन गुरुः, ऐसा विग्रह करने पर 'गुणाङ्गादिष्ठेयसू....' (अष्टा. ८।२।५) सूत्र से ईयस् प्रत्यय तथा 'प्रियस्थिरस्फिरोरुगुरु.....' (अष्टा. ८४३८) से गुरु को गर आदेश होने पर-गर+ईयस्, ‘टेः' (अष्टा. ८४४४) सूत्र से टि का लोप होने पर-गरीयस्। 'क्वचित् स्वार्थे' (अष्टा. ८।२।३) सूत्र से तर प्रत्यय होने पर गरीयस्तरम् रूप बनता है। श्लो. ३०. भस्मीभवति यह च्चिप्रत्ययान्त रूप है। अभस्म भस्म भवति, ऐसा विग्रह करने पर 'अभूततद्भावे....' (अष्टा. ८।२।१८)। सूत्र से अभूततद्भाव अर्थ में च्विप्रत्यय होने पर भस्मन् अम् च्चि, 'तद्धिताः' (अष्टा. ६।२।१) सूत्र से तद्धितसंज्ञा, 'समासप्रत्यययोः' (अष्टा. ३।२।६) सूत्र से विभक्ति का
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