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________________ श्लोक ९७-१०० ५३ श्रवणयोश्च अधिगतं श्रुतम्, हृदि स्वच्छा वृत्तिः, भुजयोः विजयि पौरुषम् अहो ! ऐश्वर्येण विनाऽपि प्रकृतिमहताम् इदं मण्डनम् ! अर्थ अहो ! ऐश्वर्य के बिना भी प्रकृति से महान् पुरुषों के ये भूषण हैं-हाथ का भूषण है दान, शिर का भूषण है गुरु चरणों में प्रणमन, मुख का भूषण है सत्य वाणी का उच्चारण, कानों का भूषण है पठित श्रुत का श्रवण, हृदय का भूषण है निर्मल वृत्ति, भुजाओं का भूषण है विजय को प्राप्त कराने वाला पौरुष । भवारण्यं मुक्त्वा यदि जिगमिषुर्मुक्तिनगरीं, तदानीं मा कार्षीर्विषयविषवृक्षेषु वसतिम् । यतश्छायाप्येषां प्रथयति महामोहमचिरा दयं जन्तुर्यस्मात् पदमपि न गन्तुं प्रभवति ।। ९९ ।। अन्वयः - यदि (त्वं) भवारण्यं मुक्त्वा मुक्तिनगरीं जिगमिषुः तदानीं विषयविषवृक्षेषु वसतिं मा कार्षीः। यतः एषां छायाऽपि अचिरात् महामोहं प्रथयति । यस्मात् अयं जन्तुः पदमपि गन्तुं न प्रभवति । अर्थ हे भव्यजन! यदि तुम संसाररूपी अरण्य को छोड़कर मुक्ति नगरी में जाने के इच्छुक हो तो विषयरूपी विषवृक्षों के नीचे निवास मत करो। क्योंकि उनकी छाया भी तत्क्षण महामोह ( मूढता, अज्ञानता) को फैलाती है, जिससे यह प्राणी एक कदम भी चलने में समर्थ नहीं होता । २ सोमप्रभाचार्य मभा च यन्न पुंसां तमः पङ्कमपाकरोति । तदप्यमुष्मिन्नुपदेशलेशे निशम्यमानेऽनिशमेति नाशम् ।। १०० ।। अन्वयः सोमप्रभा अर्यमभा च पुंसां यत्तमः पङ्कं न अपाकरोति तदपि ( तमः पङ्कं) अमुष्मिन् उपदेशलेशे निशम्यमाने अनिशं नाशम् एति । अर्थ चन्द्रमा की प्रभा और सूर्य की प्रभा भी व्यक्तियों के जिस अन्धकाररूपी पंक को दूर नहीं कर सकती, वह अज्ञानरूपी पंक भी अल्प उपदेश वाले उस 'सिन्दूरप्रकर' ग्रन्थ के निरन्तर श्रवण से नष्ट हो जाता है । १. शिखरिणीवृत्त । २. उपजातिवृत्त । ३. अत्र 'सोमप्रभाचार्य' इति ग्रन्थकारेण स्वनामापि सूचितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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