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सिन्दूरप्रकर
अन्वयः-- अर्हत्पदपूजनं कृत्वा, यतिजनं नत्वा, आगमं विदित्वा, अधर्मकर्मठधियां सङ्गं हित्वा, पात्रेषु धनं दत्वा, उत्तमकमजुषां पद्धतिं गत्वा, अन्तरारिव्रज जित्वा, पञ्चनमस्कियां स्मृत्वा इष्टं सुखं करक्रोडस्थं कुरु। अर्थ
अर्हतों के चरण की पूजा-आराधना कर, संयमी पुरुष को नमस्कार कर, आगम (सिद्धान्त) को जानकर, अधर्म में संलग्न बुद्धि वाले पुरुषों का संग छोड़कर, सुपात्र को धन देकर अर्थात् परोपकारक कार्य में धन का विसर्जन कर, उत्तमपथ का आचरण करने वाले व्यक्तियों के मार्ग को अपनाकर, आन्तरिक शत्रसमूह को जीतकर, पञ्चपरमेष्ठी का स्मरण कर तुम इष्ट-मनोभिलषित सुख को हस्तगत करो। प्रसरति यथा कीर्तिर्दिक्षु क्षपाकरसोदराऽ
भ्युदयजननी याति स्फीतिं यथा गुणसन्ततिः। कलयति यथा वृद्धिं धर्मः कुकर्महतिक्षमः,
कुशलस्लभे न्याय कार्य तथा पथि वर्तनम् ।।९७।। अन्वयःकुशलसुलभे न्याये पथि तथा वर्तनं कार्यं यथा दिक्षु क्षपाकरसोदरा कीर्तिः प्रसरति, यथा अभ्युदयजननी गुणसन्ततिः स्फीतिं याति, यथा कुकर्महतिक्षमः धर्मो वृद्धिं कलयति । अर्थ
कुशल पुरुषों द्वारा सुप्राप्य न्यायमार्ग का वैसे अन्वर्तन कटना चाहिए जिससे चन्द्रमा की तरह उज्ज्वल कीर्ति चारों दिशाओं में प्रसृत हो, जिससे अभ्युदय की जनक गणपरम्परा का विस्तार हो तथा जिससे बुरे कर्मों (पापों) का क्षय करने में समर्थ धर्म की वृद्धि हो। करे श्लाघ्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणमनं,
मुखे सत्या वाणी श्रुतमधिगतं च श्रवणयोः। हृदि स्वच्छा वृत्तिर्विजयि भुजयोः पौरुषमहो,
विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ।।९८।। अन्वयःकरे त्यागः श्लाघ्यः, शिरसि गुरुपादप्रणमनम् , मुखे सत्या वाणी, १. हरिणीवृत्त । २. शिखरिणीवृत्त।
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