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________________ अर्थ जैसे प्रचण्ड वायु उमड़ती हुई मेघघटा का अन्त कर देती है, दवाग्नि वृक्षसमूह को जला देती है, सूर्यबिम्ब अन्धकारसमूह को मिटा देता है, वज्र पर्वतसमूह का भेदन कर देता है, वैसे ही अकेला वैराग्य भी समग्र कर्मों का अन्त-अवसान कर देता है। नमस्या देवानां चरणवरिवस्या शुभगुरो निषद्यारण्ये सिन्दूरप्रकर स्तपस्या निःसीमक्लमपदमुपास्या गुणवताम् । करणदमविद्या च शिवदा, स्यात् विरागः क्रूरागः क्षपर्णानिपुणोऽन्तः स्फुरति चेत् ।।९२।। अन्वयः चेत् क्रूरागःक्षपणनिपुणः ९ विरागः अन्तः स्फुरति ( तदा) देवानां नमस्या, शुभगुरोश्चरणवरिवस्या, निःसीमक्लमपदं तपस्या, गुणवताम् उपास्या, अरण्ये निषद्या, करणदमविद्या च शिवदा स्यात् । अर्थ यदि अन्तःकरण में अनिष्टकर दोषों को दूर करने में निपुण वैराग्य स्फुरित होता है तव ही देवों को किया जाने वाला नमस्कार, सद्गुरु की चरणसेवा, असीम कष्टकर तपस्या का आचरण, गुणिजनों की उपासना, अरण्य में निवास तथा इन्द्रियों के दमन की विधि - ये सारे उपक्रम मोक्ष देने वाले होते हैं । ३ भोगान् कृष्णभुजङ्गभोगविषमान् राज्यं रजः सन्निभं बन्धून् बन्धनिबन्धनानि विषयग्रामं विषान्नोपमम् । भूतिं भूतिसहोदरां तृणतुलं स्त्रैणं विदित्वा त्यजन्, तेष्वासक्तिमनाविलो विलभते मुक्तिं विरक्तः Jain Education International अन्वयः - भोगान् कृष्णभुजङ्गभोगविषमान् राज्यं रजःसन्निभम् बन्धून् बन्धनिबन्धनानि विषयग्रामं विषान्नोपमम् भूतिं भूतिसहोदराम्, स्वैणं तृणतुलम् विदित्वा तेषु आसक्तिं त्यजन् अनाविलो विरक्तः पुमान् मुक्तिं विलभते । अर्थ पुमान् ।।९३।। जो भोगों को काले नाग के फन की तरह भयंकर जानकर, राज्य को धूलि के समान मानकर, स्वजनों को कर्मबन्ध का हेतु मानकर, इन्द्रियों के विषयसमूह को विषाक्त अन्न के समान जानकर, ऐश्वर्य को राख के सदृश मानकर तथा स्त्रीसमूह को १. शिखरिणीवृत्त । २. क्रूरं - अनिष्टकरं, आग:-दोषः, तस्य क्षपणे-क्षयकरणे, निपुणः- दक्षः सः । ३. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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