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श्लोक ८८-९१ अर्थ
हे प्राणिन् ! तुमने प्रचुर धन का दान किया, समस्त जिनवाणी का अभ्यास किया, भयंकर क्रियाकाण्ड किए, बार-बार जमीन पर शयन किया, तीव्र तप तपा, चारित्र का भी दीर्घकालीन आचरण किया, (इतना होते हुए भी) यदि चित्त में शुभभावना नहीं है तो वे सभी आचरण 'तुषवपन' की तरह निष्फल हैं। २१. वैराग्यप्रकरणम् यदशुभरजःपाथो दृप्तेन्द्रियद्विरदाकुशं,
कुशलकुसुमोद्यानं माद्यन्मनःकपिशृङ्खला। विरतिरमणीलीलावेश्म स्मरज्वरभेषजं,
शिवपथरथस्तद् वैराग्यं विमृश्य भवाऽभयः ।।९।।
अन्वयः
यत् (वैराग्यं) अशुभरजःपाथः, दृप्तेन्द्रियद्विरदांकुशम् , कुशलकुसुमोद्यानम् , माद्यन्मनःकपिशृङ्खला, विरतिरमणीलीलावेश्म, स्मरज्वरभेषजम् , शिवपथरथः तद् वैराग्यं विमृश्य अभयो भव ।
अर्थ
जो पापरूपी रजों को दूर करने के लिए जल है, उन्मत्त इन्द्रियरूपी हाथियों को वश में करने के लिए अंकुश है, कल्याणरूपी कुसुमों के लिए उद्यान है, मत्त मनरूपी वानर को निगृहीत करने के लिए शृंखला है, विरति (संयम) रूपी रमणी के लिए क्रीडागृह है, कामरूपी ज्वर के उपशमन के लिए औषध है, शिवमार्ग पर चलने के लिए रथ है, उस वैराग्य का तुम विमर्श कर, अपनाकर अभय बनो-संसार के भय से मुक्त बनो।
चण्डानिलः स्फुरितमब्दचयं दवार्चि
वृक्षव्रज तिमिरमण्डलमर्कबिम्बम्। वजं महीध्रनिवहं नयते यथान्तं,
___ वैराग्यमेकमपि कर्म तथा समग्रम् ।।९१।। अन्वयःयथा चण्डानिलः स्फुरितम् अब्दचयम , दवार्चिः वृक्षव्रजम् , अर्क बिम्बं तिमिरमण्डलम् , वज्रं महीधनिवहं अन्तं नयते तथा एकमपि वैराग्यं समग्रं कर्म (अन्तं नयते)।
१. हरिणीवृत्त। २. वसन्ततिलकावृत्त।
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