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सिन्दूरप्रकर
भवाम्भोधेः तटं लिप्सते, मुक्तिस्त्री परिरिप्सते तद् भावनां भावयेद् । अर्थ____ यदि मनुष्य सब कुछ जानना चाहता है, पुण्य को प्राप्त करना चाहता है, दया को धारण करना चाहता है, पाप का भेदन करना चाहता है, क्रोध का नाश करना चाहता है, दान, शील और तप की सफलता को प्राप्त करना चाहता है, कल्याण का उपचय करना चाहता है, भवसागर के तट को पाना चाहता है तथा मुक्तिरूपी स्त्री का आलिंगन करना चाहता है, उसे हस्तगत करना चाहता है तो वह शुभ भावना से अपने आपको भावित करे। 'विवेकवनसारिणी प्रशमशर्मसंजीवनी,
भवार्णवमहातरी मदनदावमेघावलीम् । चलाक्षमृगवागुरां गुरुकषायशैलाशनिं,
विमुक्तिपथवेसरी भजत भावनां किं परैः ?।।८८।। अन्वयःविवेकवनसारिणीम्, प्रशमशर्मसंजीवनीम्, भवार्णवमहातरीम् , मदनदावमेघावलीम्, चलाक्षमृगवागुराम्, गुरुकषायशैलाशनिम् , विमुक्तिपथवेसरी भावनां भजत, परैः किम् ? अर्थ___ जो विवेकरूपी वन (उपवन) का सिंचन करने के लिए जलनालिका है, उपशमसुखों की संजीवनी है, भवसागर को तैरने के लिए महानौका है, कामरूपी दावानल को बुझाने के लिए मेघश्रेणी है, चपल इन्द्रियरूपी मृगों को फंसाने के लिए मृगजालिका है, महाकषायरूपी पर्वतों को तोड़ने के लिए वज्र है तथा मोक्षपथ तक जाने के लिए वेसरी-खच्चरी है, ऐसी भावना का तुम आचरण करो, अन्य अनुष्ठानों से क्या? २घनं दत्तं वित्तं जिनवचनमभ्यस्तमखिलं,
क्रियाकाण्डं चण्डं रचितमवनौ सुप्तमसकृत्। तपस्तीनं तप्तं चरणमपि चीर्णं चिरतरं,
न चेच्चित्ते भावस्तुषवपनवत्सर्वमफलम् ।।८९।। अन्वयःधनं वित्तं दत्तम्, अखिलं जिनवचनमभ्यस्तम् , चण्डं क्रियाकाण्डं रचितम् , अवनौ असकृत् सुप्तम्, तीव्र तपस्तप्तम्, चरणमपि चिरतरं चीर्णम् , चेत् चित्ते भावो न (तदा) तुषवपनवत् सर्वमफलम् । १. पृथ्वीवृत्त । २. शिखरिणीवृत्त।
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