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श्लोक ८४-८७
स्कन्धबन्ध का विस्तार है। पांच इन्द्रियों का निग्रह इसकी शाखाएं हैं। देदीप्यमान अभय इसके पत्र हैं। शीलसंपदा इसके नवपल्लव हैं। यह श्रद्धारूपी जलपूर के सिञ्चन से विपुल कुल, बल, ऐश्वर्य और सौन्दर्य को विस्तीर्ण करने वाला है। स्वर्ग आदि की प्राप्ति इसके पुष्प हैं तथा यह शिवपदरूप फल को देने वाला है।
२०. भावनाप्रकरणम्
'नीरागे तरुणीकटाक्षितमिव त्यागव्यपेतप्रभौ,
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सेवाकष्टमिवोपरोपणमिवाम्भोजन्मनामश्मनि ।
४७
विष्वग्वर्षमिवोषरक्षितितले दानार्हदर्चातपः
स्वाध्यायाध्ययनादि निष्फलमनुष्ठानं विना भावनाम् ।। ८६ ।।
अन्वयः
नीरागे तरुणीकटाक्षितमिव, त्यागव्यपेतप्रभौ सेवाकष्टमिव, अश्मनि अम्भोजन्मनाम् उपरोपणमिव, ऊषरक्षितितले विष्वग्वर्षमिव, भावनां विना दानार्हदर्चातपःस्वाध्यायाध्ययनादि (सर्वं) अनुष्ठानं निष्फलम् (स्यात्) ।
अर्थ
शुभ भावना ( अनित्य- अशरण आदि) के बिना दान, अर्हतों की अर्चना, तप, स्वाध्याय तथा अध्ययन आदि अनुष्ठान वैसे ही निष्फल होते हैं जैसे रागरहित पुरुष के प्रति तरुणियों का कटाक्ष, दानवियुक्त-कृपण स्वामी की सेवा का श्रम, पाषाण पर कमलों का उपरोपण - वपन, ऊपर - बंजर भूमि पर सर्वत्र बरसने वाली वर्षा निष्फल होती है।
सर्व ज्ञीप्सति पुण्यमीप्सति दयां धित्सत्यघं भित्सति', क्रोधं दित्सति दानशीलतपसां साफल्यमादित्सते। कल्याणोपचयं चिकीर्षति भवाम्भोधेस्तटं लिप्सते,
मुक्तिस्त्रीं परिरिप्सते यदि जनस्तद् भावयेद् भावनाम् ।।८७।।
अन्वयः -
यदि जनः सर्वं ज्ञीप्सति, पुण्यमीप्सति, दयां धित्सति, अघं भित्सति, क्रोधं दित्सति, दानशीलतपसां साफल्यमादित्सते, कल्याणोपचयं चिकीर्षति, १२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त ।
३. यह आर्षप्रयोग है। इसका सन्नन्तरूप बिभित्सति बनता है। कहीं भित्मति के स्थान पर मित्सति रूप मिलता है।
४. प्रस्तुत श्लोक में सन्नन्त क्रियापदों का प्रयोग किया गया है, यथा-ज्ञीप्सति - ज्ञातुम् इच्छति । ईप्सति - आप्तुम् इच्छति । धित्सति - धातुम् इच्छति । भित्सति - भेत्तुम् इच्छति । दित्सतिदातुम् इच्छति (दोंच् अवखण्डने इत्यस्य रूपम् ) । आदित्सते - आदातुम् इच्छति । चिकीर्षतिकर्तुम् इच्छति । लिप्सते- लब्धुम् इच्छति । परिरिप्सते - परिरब्धुम् इच्छति ।
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