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सिन्दूरप्रकर इन्द्रियगणः दाम्यति, कल्याणम् उत्सर्पति, महर्द्धयः उन्मीलन्ति, कर्मणां चयः ध्वंसं कलयति, त्रिदिवं शिवं च स्वाधीनं भवति तत् तपः किं श्लाघ्यं न? अर्थ
जिस तप से विघ्नों की परम्परा विघटित होती है. देवता दासता को स्वीकार करते हैं, काम का उपशमन होता है, इन्द्रियों के समूह का दमन होता है, कल्याण का प्रसार होता है, महान् ऋद्धियां विकसित होती हैं, कर्मसमूह का नाश होता है और स्वर्ग तथा मोक्ष स्वयं के अधीन हो जाते हैं वह तप क्या श्लाघ्य नहीं है?
कान्तारं न यथेतरो ज्वलयितुं दक्षो दवाग्निं विना,
दावाग्निं न यथापरः शमयितुं शक्तो विनाम्भोधरम् । निष्णातः पवनं विना निरसितुं नान्यो यथाम्भोधरं,
कर्मोघं तपसा विना किमपरो हन्तुं समर्थस्तथा ।।८४।। अन्वयःयथा कान्तारं ज्वलयितुं दवाग्निं विना इतरो दक्षः न, यथा दावाग्निं शमयितुम् अम्भोधरं विना अपरः शक्तो न, यथा अम्भोधरं निरसितुं पवनं विना अन्यो निष्णातो न, तथा कर्मोघं हन्तुं तपसा विना अपर: किं समर्थः? अर्थ___ जैसे वन को जलाने के लिए दावानल के बिना अन्य कोई समर्थ नहीं है, जैसे दावानल को बुझाने के लिए मेघ के सिवाय दूसरा कोई शक्तिमान् नहीं है, जैसे मेघ को छिन्न-भिन्न करने के लिए पवन के बिना अन्य कोई सशक्त नहीं है, वैसे ही कर्मसमूह का क्षय करने के लिए तप के बिना क्या अन्य कोई समर्थ है? २सन्तोषस्थूलमूलः प्रशमपरिकरस्कन्धबन्धप्रपञ्चः,
पञ्चाक्षीरोधशाखः स्फुरदभयदलः शीलसंपत्प्रवालः। श्रद्धाम्भःपूरसेकाद् विपुलकुलबलैश्वर्यसौन्दर्यभोगः,
स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवपदफलदः स्यात्तपःपादपोऽयम् ।।८५।। अन्वयःअयं तपःपादपः सन्तोषस्थूलमूलः, प्रशमपरिकरस्कन्धबन्धप्रपञ्चः, पञ्चाक्षीरोधशाखः, स्फुरदभयदलः, शीलसंपत्प्रवालः, श्रद्धाम्भःपूरसेकाद् विपुलकुलबलैश्वर्यसौन्दर्यभोगः, स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः, शिवपदफलद: स्यात् । अर्थ
यह तपरूपी वृक्ष है। सन्तोष इसका पुष्ट मूल है। उपशम इसका परिकर१. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। २. स्रग्धरावृत्त।
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