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________________ श्लोक ८०-८३ ४५ अर्थ सुपात्र को दिया गया दान धर्म का हेतु बनता है तथा उससे अन्य को दिया हुआ दान दया की श्रेष्ठता को ख्यापित करने वाला होता है। मित्र को दिया गया दान प्रीति को बढ़ाने वाला होता है तथा उससे अन्य अर्थात् शत्रु को दिया हुआ दान वैर को दूर करने में सक्षम होता है। नौकर को दिया गया दान भक्ति को बढ़ाने वाला होता है और राजा को दिया हुआ उपहार-स्वरूप धन सम्मान देने वाला होता है तथा भाट (चारण) अथवा विद्वान् को दिया हुआ दान सुयश करने वाला होता है। अहो ! दान कहीं भी निष्फल नहीं होता! १९. तपःप्रकरणम् 'यत्पूर्वार्जितकर्मशैलकुलिशं यत्कामदावानल ज्वालाजालजलं यदुग्रकरणग्रामाहिमन्त्राक्षरम् । यत्प्रत्यूहतमःसमूहदिवसं यल्लब्धिलक्ष्मीलता मूलं तद् द्विविधं यथाविधि तपः कुर्वीत वीतस्पृहः ।।८२।। अन्वयःयत् पूर्वार्जितकर्मशैलकुलिशम् , यत् कामदावानलज्वालाजालजलम् , यद् उग्रकरणग्रामाहिमन्त्राक्षरम्, यत् प्रत्यूहतमःसमूहदिवसम्, यत् लब्धिलक्ष्मीलतामूलम् तद् द्विविधं तपः वीतस्पृहः (सन् ) यथाविधि कुर्वीत। अर्थ ___ जो तप पूर्वभव में अर्जित कर्मरूपी पर्वतों को तोड़ने के लिए वज्र की भांति है, जो कामरूपी दावानल के ज्वालासमूह के शमन के लिए जल के समान है, जो दारुण इन्द्रियसमूहरूपी सर्प को वश में करने के लिए मन्त्राक्षर तुल्य है, जो विघ्नरूपी अन्धकारसमूह को नष्ट करने के लिए दिन की तरह है, जो लब्धिरूपी संपत्लता को उत्पन्न करने के लिए मूल के समान है वह तप बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का है। उसका कामनारहित होकर यथाविधि आचरण करना चाहिए। यस्माद् विघ्नपरम्परा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते, कामः शाम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः कल्याणमुत्सर्पति। उन्मीलन्ति महर्द्धयः कलयति ध्वंसं चयः कर्मणां, स्वाधीनं त्रिदिवं शिवं च भवति श्लाघ्यं तपस्तन किम् ?।।८३।। अन्वयःयस्माद् (तपसः) विघ्नपरम्परा विघटते, सुराः दास्यं कुर्वते, कामः शाम्यति, १-२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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