SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ अर्थ जो मनुष्य पुण्य - परोपकार के लिए अपने अर्थ का दान करता है लक्ष्मी उस पुरुष की कामना करती है, मति उसको खोजती है, कीर्त्ति उसको देखती है, प्रीति उसका आश्लेष करती है, सौभाग्य उसकी सेवा करता है, आरोग्य उसका आलिंगन करता है, कल्याण का समूह उसके सम्मुख आता है, स्वर्ग के उपभोग की स्थिति उसका वरण करती है और मुक्ति उसकी वांछा करती है। तस्यासन्ना रतिरनुचरी कीर्त्तिरुत्कण्ठिता श्रीः, स्निग्धा बुद्धिः परिचयपरा चक्रवर्त्तित्वऋद्धिः । पाणौ प्राप्ता त्रिदिवकमला कामुकी मुक्तिसंपत्, सिन्दूरप्रकर सप्तक्षेत्र्यां वपति विपुलं वित्तबीजं निजं यः ।। ८० ।। अन्वयः - यो निजं विपुलं वित्तबीजं सप्तक्षेत्र्यां वपति तस्य रतिरासन्ना, कीर्त्तिरनुचरी, श्रीः उत्कण्ठिता, बुद्धिः स्निग्धा, चक्रवर्त्तित्वऋद्धिः परिचयपरा, त्रिदिवकमला पाणौ प्राप्ता, मुक्तिसंपत् कामुकी । अर्थ जो व्यक्ति अपने विपुल वित्तरूपी बीजों को सप्तक्षेत्र - - सात क्षेत्रों में वपन करत है उसके आनन्द समीपवर्ती हो जाता है, कीर्त्ति उसकी अनुचरी हो जाती है, लक्ष्मी उससे मिलने के लिए उत्कंठित रहती है, उसकी बुद्धि स्निग्ध हो जाती है, चक्रवर्ती की ऋद्धि उससे सुपरिचित हो जाती है, स्वर्गलक्ष्मी उसके हस्तगत हो जाती है और मोक्षलक्ष्मी उसकी कामना करती है। पात्रे धर्मनिबन्धनं तदितरे श्रेष्ठं दयाख्यापकं, मित्रे प्रीतिविवर्धनं तदितरे वैरापहारक्षमम् । भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतौ सम्मानसत्पादकं, Jain Education International भट्टादौ सुयशस्करं वितरणं न क्वाप्यहो निष्फलम् ।। ८१ ।। अन्वयः - पात्रे वितरणं धर्मनिबन्धनं तदितरे श्रेष्ठं दयाख्यापकम्, मित्रे प्रीतिविवर्धन तदितरे वैरापहारक्षमम्, भृत्ये भक्तिभरावहम्, नरपतौ सम्मानसत्पादकम् भट्टादौ सुयशस्करम्। अहो ! (वितरण) क्वापि निष्फलं न (भवति) । १. मन्दाक्रान्तावृत्त । २. मूर्तिपूजक मान्यता के अनुसार जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर, श्रुतज्ञान, मुनि, आर्यिका श्रावक श्राविका - ये सप्तक्षेत्र हैं। ३. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy