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________________ श्लोक ७६-७९ ४३ अन्वयःपात्रे निहितं पवित्रं धनं चारित्रं चिनुते, विनयं तनोति, ज्ञानम् उन्नतिं नयति, प्रशमं पुष्णाति, तपः प्रबलयति, आगमम् उल्लासयति, पुण्यं कन्दलयति, अघं दलयति, स्वर्ग ददाति, क्रमात् निर्वाणश्रियम् आतनोति । अर्थ___ न्याय से उपार्जित धन सुपात्र को दिए जाने पर वह चारित्र का उपचय करता है, विनय को वृद्धिंगत करता है, ज्ञान की समृद्धि करता है, उपशम को पुष्ट करता है, तप को प्रबल करता है, आगमज्ञान को उल्लसित करता है, पुण्य को अंकुरित करता है, पाप का नाश करता है, स्वर्ग देता है और क्रमशः मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कराता है। दारिद्र्यं न तमीक्षते न भजते दौर्गत्यमालम्बते, नाऽकीतिर्न पराभवोऽभिलषते न व्याधिरास्कन्दति। दैन्यं नाद्रियते दुनोति न दरः क्लिश्नन्ति नैवापदः, पात्रे यो वितरत्यनर्थदलनं दानं निदानं श्रियाम् ।।७८।। अन्वयःयः पात्रे अनर्थदलनं श्रियां निदानं दानं वितरति तं दारिद्र्यं न ईक्षते, दौर्गत्यं न भजते, अकीर्त्तिः नालम्बते, पराभवो नाभिलषते, व्याधि स्कन्दति, दैन्यं नाद्रियते, दरो न दुनोति, नैव आपदः क्लिश्नन्ति। अर्थ___ जो मनुष्य सुपात्र को दान देता है उसको दारिद्र्य कभी नहीं देखता, उसे दुर्गति प्राप्त नहीं होती, अपयश उसका आलम्बन नहीं लेता, पराभव उसकी अभिलाषा नहीं करता, व्याधि उस पर आक्रमण नहीं करती, दीनता उसका आश्रय नहीं लेती, भय उसको नहीं सताता और न ही आपदाएं उसको क्लेश देती हैं। अतः सुपात्रदान अनर्थ का नाश करने वाला और संपदाओं का कारणभूत है। लक्ष्मीः कामयते मतिर्मृगयते कीर्तिस्तमालोकते, प्रीतिश्चुम्बति सेवते सुभगता नीरोगताऽ।लिङ्गति। श्रेयःसंहतिरभ्युपैति वृणुते स्वर्गोपभोगस्थिति र्मुक्तिर्वाञ्छति यः प्रयच्छति पुमान् पुण्यार्थमर्थ निजम् ।।७९।। अन्वयःयः पुमान् पुण्यार्थं निजम् अर्थं प्रयच्छति तं लक्ष्मी: कामयते, मतिम॑गयते, कीर्तिरालोकते, प्रीतिश्चम्बति, सुभगता सेवते, नीरोगताऽालिङ्गति, श्रेयःसंहतिरभ्युपैति, स्वर्गोपभोगस्थितिः वृणुते, मुक्तिर्वाञ्छति। १.२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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