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सिन्दूरप्रकर
अर्थ
मनस्वी व्यक्ति भी धन के अर्थी होकर क्या-क्या कष्ट नहीं उठाते ? उनको नीच पुरुषों की भी सदा चापलूसी करनी पड़ती है, नीच पुरुषों के आगे झुकना पड़ता है, निर्गुणी शत्रु का भी उच्चस्वर से गुणोत्कीर्तन करना पड़ता है तथा अकृतज्ञ स्वामी की सेवा करने में वे तनिक भी निर्वेद-खेद या विरक्ति का अनुभव नहीं करते। लक्ष्मीः सर्पति नीचमर्णवपयःसङ्गादिवाभ्भोजिनी
संसर्गादिव कंटकाक्लपदा न क्वापि धत्ते पदम्। चैतन्यं विषसन्निधेरिव नृणामुज्जासयत्यजसा,
धर्मस्थाननियोजनेन गुणिभिाह्यं तदस्याः फलम् ।।७६।। अन्वयःलक्ष्मीः अर्णवपयःसङ्गादिव नीचं सर्पति, अम्भोजिनीसंसर्गादिव कंटकाकुलपदा क्वापि पदं न धत्ते, विषसन्निधेरिव नृणां चैतन्यम् अञ्जसा उज्जासयति तद् गुणिभिः धर्मस्थाननियोजनेन अस्याः फलं ग्राह्यम् । अर्थ
जैसे जल का स्वभाव नीचे की ओर गति करने का है वैसे ही लक्ष्मी समुद्र-जल की संगति से नीच पुरुषों की ओर जाती है। जैसे कमलिनी में कांटे होते हैं वैसे ही लक्ष्मी कमलिनी के संसर्ग से पैरों में कांटे लगने से कहीं भी एक स्थान पर पैर टिका नहीं पाती। जैसे विष प्राणी का घातक होता है वैसे ही लक्ष्मी की विष के साथ समीपता रहने से वह मनुष्यों की चेतना (ज्ञान) को तीव्रता से नष्ट करती है। अतः गुणवान् पुरुषों को चाहिए कि वे लक्ष्मी का धर्मस्थान में नियोजन कर उसका फल पाएं। १८. दानप्रकरणम्
चारित्रं चिनुते तनोति विनयं ज्ञानं नयत्युन्नतिं,
पुष्णाति प्रशमं तपः प्रबलयत्युल्लासयत्यागमम्। पुण्यं कन्दलयत्यऽघं दलयति स्वर्ग ददाति क्रमात्,
__निर्वाणश्रियमातनोति निहितं पात्रे पवित्रं धनम् ।।७७।। १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त २. लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्र से मानी जाती है। ३. लक्ष्मी का आसन कमलिनी है। ४. विष और लक्ष्मी-दोनों का उत्पत्ति-स्थल समुद्र है। ५. दान के दो प्रकार हैं-सांसारिक दान और मोक्ष दान। संयमी को संयमजीवन के निर्वाह के लिए जिस कल्पनीय वस्तु का दान दिया जाता है, वह मोक्ष दान है, मोक्षाभिमुख दान है। जिस दान में धन का विनिमय होता है और जो असंयमी को दिया जाता है वह मांमारिक दान है, सामाजिक दान है। वह संसाराभिमुख दान है। वह मोक्ष का हेतु नहीं
बनता। ६. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। Jain Education International
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