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________________ ४० सिन्दूरप्रकर चाहे तुम आगम-अध्ययन में श्रम करो तथा तप तपो-इन सारे प्रयत्नों को तुम राख में आहुति देने के समान निष्फल जानो। धर्मध्वंसधुरीणमभ्रमरसाऽ।वारीणमापत्प्रथा लङ्कीणमशर्मनिर्मितकलापारीणमेकान्ततः। सर्वान्नीनमनात्मनीनमनयात्यन्तीनमिष्टे यथा कामीनं कुपथाध्वनीनमजयन्नक्षौघमक्षेमभाक् ।।७२।। अन्वयःधर्मध्वंसधुरीणम्, अभ्रमरसाऽ।वारीणम् , आपत्प्रथाऽलङ्कर्मीणम् , अशर्मनिर्मितकलापारीणम् , एकान्ततः सर्वान्नीनम्, अनात्मनीनम् , अनयाऽत्यन्तीनम् , इष्टे यथाकामीनम्, कुपथाध्वनीनम् अक्षौघम् अजयन् अक्षेमभाक् (भवति)। अर्थ जो (इन्द्रियसमूह) धर्म का ध्वंस करने में मुख्य है, अभ्रमरस अर्थात् सत्यज्ञान को आच्छादित करने वाला है, आपदाओं को फैलाने में समर्थ है, दुःखों की निर्माण कला में पारंगत है, एकान्ततः सर्वभक्षी है, आत्मा का अहित करने वाला है, अन्यायमार्ग पर तीव्रता से चलने वाला है, प्रिय वस्तुओं में स्वेच्छाचारी है, कुपथ का पथिक है, ऐसे इन्द्रियसमूह को नहीं जीतता हुआ प्राणी कल्याण का अधिकारी नहीं होता। १७. लक्ष्मीस्वभावप्रकरणम् निम्नं गच्छति निम्नगेव नितरां निद्रेव विष्कम्भते, ___ चैतन्यं मदिरेव पुष्यति मदं धूम्येव दत्तेऽन्धताम्। चापल्यं चपलेव चुम्बति दवज्वालेव तृष्णां नय त्युल्लासं कुलटाङ्गनेव कमला स्वैरं परिभ्राम्यति ।।७३।। अन्वयःकमला निम्नगा इव निम्नं गच्छति, निद्रेव नितरां चैतन्यं विष्कम्भते, मदिरेव मदं पुष्यति, धम्येव अन्धतां दत्ते, चपलेव चापल्यं चुम्बति, दवज्वालेव तृष्णां उल्लासं नयति, कुलटाङ्गनेव स्वैरं परिभ्राम्यति। १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । २. इस श्लोक में प्रयुक्त धुरीणम्-धुरं वहति, आवारीणम्-आवरणाय समर्थः, अलङ्कर्मीणम् अलं कर्मणे, पारीणम्-पारं गामी, सर्वान्नीनम्-सर्वान्नम् अत्ति, अनात्मनीनम्-अनात्मने हितम्, अत्यन्तीनम्-अत्यन्तं भृशं गामी, यथाकामीनम्-यथाकामं गामी, अवनीनम् अध्वानमलंगामी-ये सभी ईनप्रत्ययान्त शब्द हैं। ३. शार्दूलविक्रीडितवृत्त ।। ४. यह धातुरूप विपूर्वक ' स्कभिङ स्तम्भे' का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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