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________________ रलाक ६८-७१ ३९ इन्द्रियसमूह को जीतकर तुम कल्याणयुक्त बनो, क्योंकि वह व्रतों की मुद्रा - मर्यादा को भंग करने वाला है । 'प्रतिष्ठां यन्निष्ठां नयति नयनिष्ठां विघटय त्यकृत्येष्वाधत्ते मतिमतपसि प्रेम तनुते । विवेकस्योत्सेकं विदलयति दत्ते च विपदं, पदं तद् दोषाणां करणनिकुरम्बं कुरु वशे ।। ७० ।। अन्वयः यत् प्रतिष्ठां निष्ठां नयति, नयनिष्ठां विघटयति, अकृत्येषु मतिम् आधत्ते, अतपसि प्रेम तनुते, विवेकस्य उत्सेकं विदलयति, विपदं च दत्ते तद् दोषाणां पदं करणनिकुरम्बं वशे कुरु । अर्थ प्रतिष्ठा का नाश करता है, न्याय की मर्यादा का विघटन करता है, अकृत्यअनाचरणीय कार्यों में मति को स्थापित करता है, अतपस्या- असंयम में प्रेम का विस्तार करता है, विवेक के उदय का विध्वंस करता है तथा विपदाओं को देता है वह इन्द्रियसमूह दोषों का स्थान है । अत: तुम उसका निग्रह करो । २धत्तां मौनमगारमुज्झतु विधिप्रागल्भ्यमभ्यस्यता मस्त्वन्तर्गणमागमश्रममुपादत्तां तपस्तप्यताम् । श्रेयःपुञ्ज निकुञ्जभञ्जनमहावातं न चेदिन्द्रिय व्रातं जेतुमवैति भस्मनि हुतं जानीत सर्वं ततः ।।७१।। अन्वयः - ( भवान् ) मौनं धत्ताम्, अगारम् उज्झतु, विधिप्रागल्भ्यम् अभ्यस्यताम्, अन्तर्गणम् अस्तु, आगमश्रमम् उपादत्ताम्, तपस्तप्यताम् चेत् श्रेयःपुञ्जनिकुञ्जभञ्जनमहावातं इन्द्रियव्रातं जेतुं न अवैति ततः सर्वं भस्मनि तं जानीत | अर्थ हे आत्मन् ! इन्द्रियसमूह कल्याणपुंजरूपी निकुंज को ध्वस्त करने में महावायु के समान है। यदि तुम उसको जीतना नहीं जानते हो तो चाहे तुम मौन धारण करो, घर का त्याग करो, आचार-व्यवहार की दक्षता का अभ्यास करो, गण के भीतर वास करो, Jain Education International १. शिखरिणीवृत्त । २. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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