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________________ श्लोक ६४-६७ अन्वयः - हरति कुमतिं भिन्ते मोहं करोति विवेकितां, वितरति रतिं सूते नीतिं तनोति विनीतताम् । प्रथयति यशोधत्ते धर्मं व्यपोहति दुर्गतिं, जनयति नृणां किं नाभीष्टं गुणोत्तमसङ्गमः ।। ६६ । गुणोत्तमसङ्गमः नृणां किम् अभीष्टं न जनयति । (गुणोत्तमसङ्गमः) कुमति हरति, मोहं भिन्ते, विवेकितां करोति, रतिं वितरति, नीतिं सूते, विनीततां तनोति, यशः प्रथयति, धर्मं धत्ते, दुर्गतिं व्यपोहति । अर्थ ३७ गुणोत्तम पुरुषों का संगम मनुष्यों को क्या-क्या अभीष्ट फल नहीं देता? वह कुमति को दूर करता है, मोह का भेदन करता है, विवेकशीलता को बढ़ाता है, प्रीति को बांटता है, न्याय को जन्म देता है, नम्रता को विस्तृत करता है, यश को फैलाता है, धर्म को धारण कराता है और दुर्गति का निवारण करता है। लब्धुं बुद्धिकलापमापदमपाकर्तुं विहर्तुं पथि, प्राप्तुं कीर्त्तिमसाधुतां विधुवितुं धर्मं समासेवितुम् । रोद्धुं पापविपाकमाकलयितुं स्वर्गापवर्गश्रियं, चेत्त्वं चित्त ! समीहसे गुणवतां सङ्गं तदङ्गीकुरु ।।६७।। अन्वयः - 1 चित्त ! चेत् त्वं बुद्धिकलापं लब्धुम् आपदमपाकर्तुम्, पथि विहर्तुम्, कीर्त्ति प्राप्तुम् असाधुतां विधुवितुम्, धर्मं समासेवितुम्, पापविपाकं रोद्धुम्, स्वर्गापवर्गश्रियम् आकलयितुं समीहसे तत् गुणवतां सङ्गम् अङ्गीकुरु । अर्थ Jain Education International हे चित्त ! यदि तुम बुद्धिसमूह को प्राप्त करना, आपदाओं को दूर करना, न्यायमार्ग पर विहरण करना, कीर्ति को पाना, असज्जनता को धूनना - हटाना, धर्म का आसेवन करना, पापों के विपाक को रोकना तथा स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी को प्राप्त करना चाहते हो तो तुम गुणिजनों का संग अंगीकार करो । १. हरिणीवृत्त । २. अत्र गुणावलिमित्यपि पाठो लभ्यते । ३. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । ४. प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त लब्धुम् अपाकर्तुम्, विहर्तुम्, प्राप्तुम्, विधुवितुम्, समासेवितुम्, रोद्धुम्, आकलयितुम्- ये सभी शब्दरूप तुम्प्रत्ययान्त हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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