________________
३५
श्लोक ६०-६३ घुसेड़ना भी अच्छा हो सकता है। फिर भी ज्ञानी पुरुषों को दुर्जनता का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह विपदाओं का घर है। सौजन्यमेव विदधाति यशश्चयं च,
श्वःश्रेयसं च विभवं च भवक्षयं च। दौर्जन्यमावहसि यत्कुमते ! तदर्थ,
धान्येऽनलं दिशसि तज्जलसेकसाध्ये ।।६२।। अन्वयःसौजन्यमेव (पुंसां) यशश्चयं च श्वःश्रेयसं च विभवं च भवक्षयं च विदधाति। कुमते! तदर्थं यत् दौर्जन्यम् आवहसि तत् जलसेकसाध्ये धान्ये अनलं दिशसि।
अर्थ
सुजनता ही मनुष्यों के यश का संचय करती है, कल्याण करती है, वैभव का विस्तार करती है तथा भव-जन्म-मरण का क्षय करती है। अतः हे दुर्बुद्धे ! उन (यशवैभव आदि) के लिए तुम जिस दुर्जनता का आचरण करते हो तुम्हारा वह कार्य जलसिंचन से साध्य धान्य के खेत में अग्नि फेंकने जैसा है।
श्वरं विभववन्ध्यता सुजनभावभाजां नृणा
____ मसाधुचरितार्जिता न पुनरूर्जिताः संपदः। कृशत्वमपि शोभते सहजमायतौ सुन्दरं,
विपाकविरसा न तु श्वयथुसंभवा स्थूलता ।।६३।। अन्वयःसुजनभावभाजां नृणां विभववन्ध्यता वरं, न पुनः असाधुचरितार्जिता ऊर्जिताः संपदः । सहजं कृशत्वमपि आयतौ सुन्दरं शोभते न तु श्वयथुसंभवा विपाकविरसा स्थूलता। अर्थ
सौजन्य का आचरण करने वाले मनुष्यों के लिए निर्धनता अच्छी है, किन्तु अनैतिक आचरण से अर्जित प्रचुर संपदाएं अच्छी नहीं हैं। सहज कृशता भी भविष्य में सुन्दर लगती है, किन्तु शोथ से उत्पन्न स्थूलता अच्छी नहीं होती, क्योंकि उसका विपाक-परिणाम विरस होता है। १. वसन्ततिलकावृत्त। २. स्वश्रेयसमित्यपि पाठः। ३. पृथ्वीवृत्त ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org