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________________ ३४ सिन्दूरप्रकर रूपी भस्म है, जिसमें फैलता हआ अपकीर्तिरूपी धूआं उठ रहा है तथा जो अत्यधिक धनरूपी इन्धन मिलने के कारण प्रज्वलित है, ऐसे लोभरूपी अग्नि में गुणों का समूह शलभ की भांति जलकर भस्मसात् हो जाता है। 'जातः कल्पतरुः पुरः सुरगवी तेषां प्रविष्टा गृहं, चिन्तारत्नमुपस्थितं करतले प्राप्तो निधिः सन्निधिम् । विश्वं वश्यमवश्यमेव सुलभाः स्वर्गापवर्गश्रियः, ये सन्तोषमशेषदोषदहनध्वंसाम्बुदं बिभ्रते ।।६।। अन्वयःये अशेषदोषदहन,साम्बुदं सन्तोषं बिभ्रते तेषां पुरः कल्पतरुः जातः, सुरगवी गृहं प्रविष्टा, करतले चिन्तारत्नम् उपस्थितम् , निधिः सन्निधिं प्राप्तः, विश्वम् अवश्यमेव वश्यम् , स्वर्गापवर्गश्रियः सुलभाः। अर्थ सन्तोष समस्त दोषरूपी अग्नि के उपशमन के लिए मेघ के समान है। जो मनुष्य उसको धारण करते हैं उनके सामने कल्पवृक्ष प्रकट हो जाता है, उनके घर में कामधेनु प्रविष्ट हो जाती है, उनके करतल में चिन्तामणि रत्न आ जाता है, निधि उनके समीप हो जाती है, जगत् निश्चित ही उनके वश में हो जाता है, तथा स्वर्ग और मोक्ष की संपदाएं उनके लिए सुलभ हो जाती हैं। १४. सौजन्यप्रकरणम् श्वरं क्षिप्तः पाणिः कुपितफणिनो वक्त्रकुहरे, वरं झम्पापातो ज्वलदनलकण्डे विरचितः। वरं प्रासप्रान्तः सपदि जठरान्तर्विनिहितो, न जन्यं दौर्जन्यं तदपि विपदां सम विदुषा ।।६१।। अन्वयःकुपितफणिनो वक्त्रकुहरे पाणिः क्षिप्तः वरम् । ज्वलदनलकुण्डे झम्पापातो विरचितो वरम्। प्रासप्रान्तः सपदि जठरान्तः विनिहितो वरम् , तदपि विदुषा विपदां सद्म दौर्जन्यं न जन्यम् । अर्थ__ कुपित सर्प के मुखरूपी विवर में हाथ डालना अच्छा हो सकता है। जलते हुए अग्निकुंड में झम्पापात करना अच्छा हो सकता है। भाले की नोक को तत्काल उदर में १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । २. शिखरिणीवृत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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