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________________ ३ ३ श्लोक ५६-५९ अर्थ__धन से अन्धी बनी हुई मति वाले मनुष्य जिस धन के कारण दुर्गम अटवी में घूमते हैं, विकट देशान्तर में जाते हैं, गहन समुद्र का अवगाहन करते हैं, बहुकष्टसाध्य कृषि करते हैं, कृपण स्वामी की सेवा करते हैं, हस्तिसमूह के संघट्टन-मुठभेड़ के कारण दुःशक्य संचरण वाले युद्ध में जाते हैं, वह सब लोभ का ही परिणाम है। मूलं मोहविषद्रुमस्य सुकृताम्भोराशिकुम्भोद्भवः, क्रोधाग्नेररणिः प्रतापतरणिप्रच्छादने तोयदः। क्रीडासद्म कलेविवेकशशिनः स्वर्भानुरापन्नदी सिन्धुः कीर्तिलताकलापकलभो लोभः पराभूयताम् ।।५८।। अन्वयःमोहविषद्रमस्य मूलम्, सुकृताम्भोराशिकुम्भोद्भवः, क्रोधाग्नेः अरणिः, प्रतापतरणिप्रच्छादने तोयदः, कलेः क्रीडासद्म, विवेकशशिनः स्वर्भानुः, आपन्नदीसिन्धुः, कीर्तिलताकलापकलभः लोभः पराभूयताम् । अर्थ जो मोहरूपी विषवृक्ष का मूल है, पुण्यरूपी समुद्र के शोषण के लिए जो अगस्त्य ऋषि के तुल्य है, जो क्रोधरूपी अग्नि को उत्पन्न करने के लिए अरणि काष्ठ के समान है, जो प्रतापरूपी सूर्य को आच्छादित करने में बादल के सदृश है, जो कलह का क्रीडागृह है, जो विवेकरूपी चन्द्रमा को ग्रसित करने के लिए राह है, जो आपदारूपी नदियों के संगम के लिए समुद्र है, जो कीर्तिरूपी लतासमूह के नाश के लिए हस्तिशिशु है उस लोभ को तुम पराजित करो, उसे छोड़ो। निःशेषधर्मवनदाहविजृम्भमाणे, दुःखौघभस्मनि विसर्पदकीर्तिधूमे। बाढं धनेन्धनसमागमदीप्यमाने, लोभानले शलभतां लभते गुणौघः।।५९।। अन्वयःनिःशेषधर्मवनदाहविजृम्भमाणे, दुःखौघभस्मनि, विसर्पदकीर्तिधूमे, बाढं धनेन्धनसमागमदीप्यमाने लोभानले गुणौघः शलभतां लभते। अर्थ जो समस्त धर्मरूपी वन को जलाने के कारण विस्तार पा रहा है, जिसमें दुःखसमूह १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त । २. वसन्ततिलकावृत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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