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________________ ३२ सिन्दूरप्रकर अन्वयःयो दुराशयो धनाशया अविश्वासविलासमन्दिरं मायां कुरुते स पतन्तम् अनर्थसार्थं न ईक्षते, यथा बिडालो पयः पिबन् (पतन्तं) लगुडं (न ईक्षते)। अर्थ____ माया अविश्वास का क्रीडागृह है। दुष्ट अभिप्राय वाला जो मनुष्य धन की कामना से माया करता है वह स्वयं पर आने वाले अनर्थ समूह को वैसे ही नहीं देखता जैसे दूध पीता हुआ बिडाल दंड के प्रहार को। १मुग्धप्रतारणपरायणमुज्जिहीते,२ यत्पाटवं कपटलम्पटचित्तवृत्तेः। जीर्यत्युपप्लवमवश्यमिहाप्यकृत्वा, नापथ्यभोजनमिवामयमायतौ तत् ।।५६।। अन्वयःइह कपटलम्पटचित्तवृत्तेः यत्पाटवं मुग्धप्रतारणपरायणम् (सत्) उज्जिहीते तत् (पाटवम् ) अवश्यम् आयतौ उपप्लवम् अकृत्वा न जीर्यति अपथ्यभोजनम् आमयमिव। अर्थ इस संसार में कपट में लिप्त चित्तवृत्ति वाले मनुष्यों का जो पाटव भोले मनुष्यों को ठगने में तत्पर होकर उभरता है वह पाटव निश्चित ही भविष्य में उपद्रव किए बिना परिणत नहीं होता, जैसे अपथ्य भोजन रोग उत्पन्न किए बिना जीर्ण नहीं होता, नहीं पचता। १३. लोभत्यागप्रकरणम् यदुर्गामटवीमटन्ति विकटं क्रान्ति देशान्तरं, गाहन्ते गहनं समुद्रमतनुक्लेशां कृषि कुर्वते। सेवन्ते कृपणं पतिं गजघटासंघट्टदुःसंचरं, सर्पन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभविस्फूर्जितम् ।।५७।। अन्वयःधनान्धितधियो यदुर्गाम् अटवीम् अटन्ति, विकटं देशान्तरं क्रामन्ति, गहनं समुद्रं गाहन्ते, अतनुक्लेशां कृषि कुर्वते, कृपणं पतिं सेवन्ते, गजघटासंघट्टदुःसंचरं प्रधनं सर्पन्ति तत् लोभविस्फूर्जितम् । १. वसन्ततिलकावृत्त। २. उज्जिहीते-यह उत्पूर्वक 'ओहां गतौ' धातुरूप है। ३. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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