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________________ ३१ श्लोक ५१-५५ वाला तथा संजीवनी बूटी के समान होता है । उसको अहंकार चुरा लेता है, उसका नाश कर देता है। वह अहंकार जाति आदि ( लाभ-कुल- ऐश्वर्य-ब -बल-रूप-तप और श्रुत) के मदरूपी विष से उत्पन्न होता है। उस विषम विकार को तुम मार्दवरूपी अमृतरस से शान्त करो, उसको मिटाओ । १२. मायात्यागप्रकरणम् 'कुशलजननवन्ध्यां सत्यसूर्यास्तसन्ध्यां कुगतियुवतिमालां मोहमातङ्गशालाम् । शमकमलहिमानीं दुर्यशोराजधानीं, व्यसनशतसहायां दूरतो मुञ्च मायाम् ।।५३॥ अन्वयः - कुशलजननबन्ध्याम्, सत्यसूर्यास्तसन्ध्याम्, कुगतियुवतिमालाम्, मोहमातङ्गशालाम्, शमकमलहिमानीम्, दुर्यशोराजधानीम्, व्यसनशतसहायां मायां दूरतो मुञ्च । अर्थतुम माया को दूर से छोड़ दो। वह कल्याण को जन्म देने में बन्ध्या स्त्री के समान तथा सत्यरूपी सूर्य को अस्त करने के लिए सन्ध्या के समान है। वह कुगतिरूपी युवति का वरण करने के लिए वरमाला के समान तथा मोहरूपी हाथी के रहने के लिए शाला के समान है। वह उपशमरूपी कमलों के विनाश के लिए अत्यधिक हिम के समान, अपयश की राजधानी के समान तथा सैंकड़ों कष्टों को सहयोग देने वाली है। विधाय मायां विविधैरुपायैः परस्य ये वञ्चनमाचरन्ति । ते वञ्चयन्ति त्रिदिवापवर्ग-सुखान्महामोहसखाः स्वमेव ।। ५४ ।। अन्वयः - ये विविधैरुपायैः मायां विधाय परस्य वञ्चनम् आचरन्ति ते महामोहसखाः (सन्तः) त्रिदिवापवर्गसुखात् स्वमेव वञ्चयन्ति । अर्थ जो मनुष्य नाना प्रकार के उपायों से माया करके दूसरों को ठगते हैं वे महामोह के साथी होकर - महामोह से युक्त होकर स्वर्ग और मोक्ष के सुख से अपने आपको ही वञ्चित कर लेते हैं। मायामविश्वासविलासमन्दिरं, १. मालिनीवृत्त । २. उपेन्द्रवज्रावृत्त । ३. इन्द्रवज्रावृत्त । Jain Education International दुराशयो यः कुरुते धनाशया । सोऽनर्थसार्थं न पतन्तमीक्षते, यथा बिडालो लगुडं पयः पिबन् ।। ५५ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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