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________________ सिन्दूरप्रकर बुद्धिरूपी रज्जु को तोड़ता हुआ, दुर्वचनरूपी धूलिसमूह को बिखेरता हुआ, आगमरूपी (सिद्धान्तरूपी) अंकुश की अवमानना करता हुआ, पृथ्वी पर स्वेच्छा से घूमता हुआ तथा विनयरूपी न्यायमार्ग का विध्वंस करता हुआ क्या-क्या अनर्थ उत्पन्न नहीं करता? १औचित्याचरणं विलुम्पति पयोवाहं नभस्वानिव, प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणस्पृशां जीवितम्। कीर्ति कैरविणीं मतङ्गज इव प्रोज्जासयत्यजसा, मानो नीच इवोपकारनिकरं हन्ति त्रिवर्ग नृणाम् ।।५१।। अन्वयःनभस्वान् पयोवाहमिव (मानः) औचित्याचरणं विलुम्पति। अहिः जीवितमिव (मानः) प्राणस्पृशां विनयं प्रध्वंसं नयति। मतङ्गजः कैरविणीमिव (मानः) अञ्जसा कीर्तिं प्रोज्जासयति। नीच उपकारनिकरमिव मानो नृणां त्रिवर्ग हन्ति । अर्थ__ जैसे पवन बादलों को नष्ट कर देता है वैसे ही अहंकार उचित आचरण को नष्ट कर देता है। जैसे सर्प जीवन को विनष्ट कर देता है वैसे ही अहंकार प्राणियों के विनय का नाश कर देता है। जैसे हाथी कमलिनी का उन्मूलन कर देता है वैसे ही अहंकार कीर्ति का शीघ्रता से उन्मूलन कर देता है। जैसे नीच व्यक्ति उपकारसमूह को भुला देता है, उसे नष्ट कर देता है वैसे ही अहंकार व्यक्तियों के त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम को नष्ट कर देता है। मुष्णाति यः कृतसमस्तसमीहितार्थं, सज्जीवनं विनयजीवितमङ्गभाजाम् । जात्यादिमानविषजं विषमं विकारं, तं मार्दवामृतरसेन नयस्व शान्तिम् ।।५२।। अन्वयःयः (मानः) अङ्गभाजां कृतसमस्तसमीहितार्थं सञ्जीवनं विनयजीवितं मुष्णाति तं जात्यादिमानविषजं विषमं विकारं मार्दवामृतरसेन शान्तिं नयस्व। अर्थ प्राणियों का विनयगुण से भावित जीवन समस्त वांछित प्रयोजनों को सिद्ध करने १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। २. प्रोज्जासयति-यह प्र+उत् उपसर्ग के साथ संयोग होने पर ‘जसुण हिंसायाम्' का रूप है। ३. वसन्ततिलकावृत्त। ४. कृताः सिद्धाः समस्ताः-सकलाः समीहितार्थाः वांछितप्रयोजनानि येन तद्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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