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श्लोक ४७-५०
११. मानत्यागप्रकरणम् यस्मादाविर्भवति विततिर्दुस्तरापन्नदीनां,
यस्मिन् शिष्टाभिरुचितगुणग्रामनामापि नास्ति। यश्च व्याप्तं वहति वधधीधूम्यया क्रोधदावं,
तं मानाद्रिं परिहर दुरारोहमौचित्यवृत्तेः।।४९।। अन्वयःयस्माद् दुस्तरापन्नदीनां विततिः आविर्भवति । यस्मिन् शिष्टाभिरुचितगुणग्रामनामापि नास्ति । यश्च वधधीधूम्यया व्याप्तं क्रोधदावं वहति। तम्
औचित्यवृत्तेः दुरारोहं मानाद्रिं परिहर । अर्थ
जिस अहंकाररूपी पर्वत से आपत्तिरूपी नदियों का विस्तार प्रकट होता है, उनको पार करना कठिन होता है। जिस अहंकार में शिष्टपुरुषों के प्रीतिजनक गुणसमूह (ज्ञान
औदार्य आदि) का नामोनिशान भी नहीं होता। जो अहंकार क्रोधरूपी दावानल को वहन करता है, वह हिंसाबुद्धि के धूम्रसमूह से व्याप्त है। उस अहंकार-पर्वत पर आरोहण करना कष्टप्रद होता है। उसका तुम औचित्यवृत्ति-विनयोपचार से परिहार करो। शमालानं भञ्जन् विमलमतिनाडी विघटयन् ,
किरन दुर्वाक्पांशूत्करमगणयन्नागमणिम् । भ्रमन्ना स्वैरं विनयनयवीथिं विदलयन् ,
जनः कं नानर्थं जनयति मदान्धो द्विप इव ।।५।। अन्वयःमदान्धो जनः द्विप इव शमालानं भञ्जन् , विमलमतिनाडी विघटयन् , दुर्वाक्पांशूत्करं किरन् , आगमशृणिम् अगणयन् , उर्त्यां स्वैरं भ्रमन् , विनयनयवीथिं विदलयन् कम् अनर्थं न जनयति। अर्थ
जैसे मदोन्मत्त हाथी आलान (हाथी बान्धने का स्तम्भ) को उखाड़ देता है, बन्धन-रज्जु (सांकल) को तोड़ देता है, धूलिसमूह को उछालता है, अंकुश की परवाह नहीं करता, सारी मर्यादाओं को तोड़कर स्वच्छन्दता से विचरण करता है वैसे ही अहंकार से अन्धा बना हुआ व्यक्ति उपशमरूपी आलान को उखाड़ता हुआ, निर्मल
१. मन्दाक्रान्तावृत्त । २. धूमस्य समूहः-'धूम्या' इत्यत्र ‘पाशादेश्च त्यः' (अष्टा. ६।३।२५) ल्यप्रत्ययः, लकारः स्त्रीत्वार्थः। ३. विततिः-विस्तार इत्यप्यर्थः। ४. शिखरिणीवृत्त।
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