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सिन्दूरप्रकर उपशमजल से सिक्त होकर मोक्ष को फलित करता है। यदि वह क्रोधरूपी अग्नि की समीपता को प्राप्त होता है तो वह फलविहीन होकर भस्मसात् हो जाता है। 'सन्तापं तनुते भिनत्ति विनयं सौहार्दमुत्सादय
त्युद्वेगं जनयत्यवद्यवचनं सूते विधत्ते कलिम् । कीर्तिं कृन्तति दुर्मतिं वितरति व्याहन्ति पुण्योदयं,
दत्ते यः कुगतिं स हातुमुचितो रोषः सदोषः सताम् ।।४७।। अन्वयःयः सन्तापं तनुते, विनयं भिनत्ति, सौहार्दम् उत्सादयति, उद्वेगं जनयति, अवद्यवचनं सूते, कलिं विधत्ते, कीर्तिं कृन्तति, दुर्मतिं वितरति, पुण्योदयं व्याहन्ति, कुगतिं दत्ते स सदोषः रोषः सतां हातुम् उचितः(अस्ति)। अर्थ__ जो संताप को बढ़ाता है, विनय का भेदन करता है, सौहार्द को मिटाता है, उद्वेग को उत्पन्न करता है, पापकारी वचन को जन्म देता है, कलह को कराता है, कीर्ति को काटता है, दुर्बुद्धि को बांटता है, पुण्य के उदय को रोकता है और कुगति देता है, ऐसे अनेक दोषों से युक्त वह क्रोध सत्पुरुषों के लिए त्यागने योग्य है।
यो धर्म दहति द्रुमं दव इवोन्मथ्नाति नीतिं लतां,
दन्तीवेन्दुकलां विधुन्तुद इव क्लिश्नाति कीर्तिं नृणाम् । स्वार्थं वायुरिवाम्बुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदं,
तृष्णां धर्म इवोचित कृतकृपालोपः स कोपः कथम्?॥४८॥ अन्वयःदवो द्रुममिव यो धर्मं दहति, दन्ती लतामिव नीतिम् उन्मथ्नाति । विधुन्तुदः इन्दुकलामिव नृणां कीर्तिं क्लिश्नाति, वायुः अम्बुदमिव स्वार्थं विघटयति, घर्म: तृष्णामिव आपदम् उल्लासयति स कृतकृपालोपः कोपः कथम् उचितः (स्यात्)? अर्थ
जैसे दवाग्नि वृक्ष को जला देती है वैसे ही क्रोध धर्म को भस्मसात् कर देता है। जैसे हाथी लता को रौंद डालता है वैसे ही क्रोध नीति-न्याय को मथ देता है। जैसे राहू चन्द्रमा को ग्रसित कर लेता है वैसे ही क्रोध मनुष्यों की कीर्ति को विबाधित करता है। जैसे वायु बादल को छिन्न-भिन्न करता है वैसे ही क्रोध स्वार्थ को विघटित करता है। जैसे ग्रीष्म ऋतु प्यास को वृद्धिंगत करती है वैसे ही क्रोध आपदा का विस्तार करता है। इस प्रकार करुणा को लुप्त करने वाला वह क्रोध कैसे उचित हो सकता है?
१-२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। Jain Education International
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