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श्लोक ४३-४६
२७ अर्थ__जैसे अग्नि अत्यधिक इन्धन से और समुद्र अत्यधिक जल से तृप्त नहीं होता वैसे ही सघन मोह से ग्रस्त प्राणी प्रचुर धन पाकर भी इस संसार में संतुष्ट नहीं होता। वह ऐसा मानता ही नहीं कि यह आत्मा समस्त वैभव को यहीं छोड़कर परभव में जाती है, तब व्यर्थ ही मैं प्रचुर पापों का आचरण क्यों करूं? १०. क्रोधत्यागप्रकरणम् यो मित्रं मधुनो विकारकरणे संत्राससम्पादने,
सर्पस्य प्रतिबिम्बमङ्गदहने सप्तार्चिषः सोदरः । चैतन्यस्य निषूदने विषतरोः सब्रह्मचारी चिरं,
स क्रोधः कुशलाभिलाषकुशलैः प्रोन्मूलमुन्मूल्यताम् ।।४५।। अन्वयःयः विकारकरणे मधुनो मित्रम् , संत्राससम्पादने सर्पस्य प्रतिबिम्बम् , अङ्गदहने सप्तार्चिषः सोदरः, चैतन्यस्य निषूदने विषतरोः चिरं सब्रह्मचारी स क्रोधः कुशलाभिलाषकुशलैः प्रोन्मूलमुन्मूल्यताम् । अर्थ
जो व्यक्ति कल्याण चाहते हैं उन कुशल व्यक्तियों को उस क्रोध का जड़मूल से उन्मूलन करना चाहिए, जो (चित्त को) विकृत करने में मद्य का मित्र है, जो संत्रास उत्पन्न करने में सर्प की प्रतिच्छाया है, जो शरीर को जलाने में अग्नि का सहोदर है, जो चैतन्य को विनष्ट करने में विषवृक्ष का चिरकालिक साथी है। २फलति कलितश्रेयःश्रेणिप्रसूनपरम्परः,
प्रशमपयसा सिक्तो मुक्तिं तपश्चरणद्रुमः। यदि पुनरसौ प्रत्यासत्तिं प्रकोपहविर्भुजो,
भजति लभते भस्मीभावं तदा विफलोदयः।।४६।। अन्वयःकलितश्रेयःश्रेणिप्रसूनपरम्परः तपश्चरणद्रुमः प्रशमपयसा सिक्तः (सन् ) मुक्तिं फलति। यदि पुनः असौ (तपश्चरणद्रुमः) प्रकोपहविर्भुजः प्रत्यासत्तिं भजति तदा विफलोदयः (सन् ) भस्मीभावं लभते। अर्थ
कल्याण की श्रेणिरूप पुष्षों की श्रृंखला से युक्त वह तपश्चर्यारूपी वृक्ष
१. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। २. हरिणीवृत्त।
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