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२६
अर्थ
धन के प्रति अत्यधिक अनुराग कलहरूपी बाल हस्ती के लिए विन्ध्यपर्वत के समान, क्रोधरूपी गीध के लिए श्मशान के तुल्य, विपत्तिरूपी सर्प के लिए बिल की तरह, द्वेषरूपी चोर के लिए रात्रि के प्रारम्भ काल के समान, पुण्यरूपी वन के लिए दवाग्नि की तरह, मार्दवरूपी मेघ के लिए वायु के समान तथा न्यायरूपी कमल के लिए पाले के समान है।
'प्रत्यर्थी प्रशमस्य मित्रमधृतेर्मोहस्य विश्रामभूः,
पापानां खनिरापदां पदमसद्ध्यानस्य लीलावनम् । व्याक्षेपस्य निधिर्मदस्य सचिवः शोकस्य हेतुः कलेः,
सिन्दूरकर
अन्वयः -
प्रशमस्य प्रत्यर्थी, अधृतेः मित्रम्, मोहस्य विश्रामभूः पापानां खनिः, आपदां पदम्, असद्ध्यानस्य लीलावनम्, व्याक्षेपस्य निधिः, मदस्य सचिवः, शोकस्य हेतु:, कले: केलिवेश्म परिग्रहो विविक्तात्मनां परिहृतेः योग्यः (अस्ति) । अर्थ
केलिवेश्म परिग्रहः परिहृतेर्योग्यो विविक्तात्मनाम् ।। ४३ ।।
परिग्रह उपशम का शत्रु तथा अधृति - असन्तोष का मित्र है। वह मोह की विश्रामस्थली, पापों की खान और आपदाओं का स्थान है। वह असद्ध्यान (आर्तरौद्र) का क्रीडावन, व्याकुलता की निधि, अहंकार का सचिव, शोक का हेतु तथा कलह का क्रीडागृह है। अतः विवेकी पुरुषों के लिए परिग्रह का त्याग करना उचित है।
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वस्तृत धनैरिह यथा नाम्भोभिरम्भोनिधिस्तद्वन्मोहघनो धनैरपि धनैर्जन्तुर्न संतुष्यति ।
न त्वेवं मनुते विमुच्य विभवं निःशेषमन्यं भवं,
अन्वयः
यथा वह्निः (घनैरपि ) इन्धनैः, अम्भोनिधिः (घनैरपि ) अम्भोभिः न तृप्यति तद्वत् मोहघनो जन्तुः इह घनैरपि धनैः न संतुष्यति । न तु एवं मनुते ( यत् ) आत्मा निःशेषं विभवं विमुच्य अन्यं भवं याति तदहं मुधैव भूयांसि एनांसि किं विदधामि ?
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यात्यात्मा तदहं मुधैव विदधाम्येनांसि भूयांसि किम् ॥ ४४ ॥
१२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त ।
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