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श्लोक ३९-४२ अर्थ
मनुष्यों के शील के प्रभाव से निश्चित ही अग्नि भी जल की तरह शीतल हो जाती है। सर्प भी पुष्पमाला के समान और सिंह भी हरिण के समान हो जाता है। दुष्ट हाथी भी घोड़े के समान और पर्वत भी पाषाणखंड के समान प्रतीत होता है। विष भी अमृत की भांति और विघ्न भी उत्सव की भांति हो जाता है। शत्रु भी प्रियजन के समान आचरण करता है। समुद्र भी क्रीडासरोवर की भांति और अटवी भी स्वगृह की भान्ति हो जाती है। ९. परिग्रहत्यागप्रकरणम्
'कालुष्यं जनयन् जडस्य रचयन् धर्मद्रुमोन्मूलनं,
क्लिश्यन्नीतिकृपाक्षमाकमलिनीर्लोभाम्बुधिं वर्धयन् । मर्यादातटमुद्रुजन् शुभमनोहंसप्रवासं दिशन् ,
किं न क्लेशकरः परिग्रहनदीपूरः प्रवृद्धिं गतः ।।४१।। अन्वयःप्रवृद्धिं गतः (सन् ) परिग्रहनदीपूरः जडस्य कालुष्यं जनयन् , धर्मद्रुमोन्मूलनं रचयन् , नीतिकृपाक्षमाकमलिनीः क्लिश्यन् , लोभाम्बुधिं वर्धयन् , मर्गदातटम् उद्रुजन् , शुभमनोहंसप्रवासं दिशन् कि क्लेशकरः न (स्यात् )? अर्थ
बढा हुआ परिग्रहरूप नदी का पूर-प्रवाह जड़-परिग्रहासक्त मनुष्य को कलुषित बनाता हुआ, धर्मरूपी वृक्ष का उन्मूलन करता हुआ, नीति, करुणा और क्षान्तिरूपी कमलिनी को क्लेश पहुंचाता हुआ, लोभरूपी समुद्र को वृद्धिंगत करता हुआ, मर्यादा के तटों को तोड़ता हुआ तथा शुभ मनरूप हंस को प्रवास में भेजता हुआ क्या-क्या क्लेश करने वाला नहीं होता?
कलहकलभविन्ध्यः क्रोधगृध्रश्मशानं,
___व्यसनभुजगरन्धं द्वेषदस्युप्रदोषः। सुकृतवनदवाग्निर्दिवाम्भोदवायु
न्यनलिनतुषारोऽत्यर्थमर्थानुरागः ।।४२।। अन्वयःअत्यर्थम् अर्थानुरागः कलहकलभविन्ध्यः, क्रोधगृध्रश्मशानम्, व्यसनभुजगरन्ध्रम्, द्वेषदस्युप्रदोषः, सुकृतवनदवाग्निः, मार्दवाम्भोदवायुः, नयनलिनतुषारः (इव अस्ति)। १. शार्दूलविक्रीडितवृत्त। २. इस श्लोक में प्रयुक्त जनयन्, रचयन्, क्लिश्यन्, वर्धयन्, उद्रुजन् (उत्पूर्वक रुजोज् भङ्गे),
दिशन् शतृप्रत्ययान्त शब्दरूप हैं। ३. मालिनीवृत्त।
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