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अन्वयः -
ये शीलमाबिभ्रते तेषां व्याघ्रव्यालजलानलादिविपदः क्षयं व्रजन्ति, कल्याणानि समुल्लसन्ति, विबुधाः सान्निध्यमध्यासते, कीर्त्तिः स्फूर्त्तिमियर्त्ति, धर्मः उपचयं याति, अघं प्रणश्यति, स्वर्निर्वाणसुखानि संनिदधते । अर्थ
जो व्यक्ति शील को धारण करते हैं उनके व्याघ्र, दुष्ट हाथी अथवा सर्प, जल और वह्नि आदि से होने वाली विपदाओं का क्षय हो जाता है। उनके श्रेयस् की वृद्धि होती है। देवता उनके सान्निध्य को प्राप्त करते हैं, उनका सहयोग करते हैं। उनकी कीर्त्ति विस्तृत होती है। उनके धर्म का उपचय होता है, पाप का प्रणाश होता है तथा स्वर्ग और निर्वाण के सुख निकट हो जाते हैं।
'हरति कुलकलङ्क लुम्पते पापपङ्क,
सुकृतमुपचिनोति श्लाघ्यतामातनोति । नमयति सुरवर्ग हन्ति दुर्गोपसर्ग,
सिन्दूरप्रकर
रचयति शुचिशीलं स्वर्गमोक्षौ सलीलम् ।।३९।।
अन्वयः
शुचिशीलं कुलकलङ्कं हरति, पापपङ्कं लुम्पते, सुकृतम् उपचिनोति, श्लाघ्यताम् आतनोति, सुरवर्गं नमयति, दुर्गोपसर्गं हन्ति, स्वर्गमोक्षौ सलीलं रचयति । अर्थ
निर्मल शील कुल के कलंक को दूर करता है, पापरूप कीचड़ को नष्ट करता है, सुकृत का उपचय करता है, श्लाघ्यता को बढाता है, देवगण को नमाता है, भयंकर उपसर्गों को उपशान्त करता है और स्वर्ग तथा मोक्ष की सहज रचना करता है, प्राप्त कराता है।
तोयत्यग्निरपि त्रजत्यहिरपि व्याघ्रोऽपि सारङ्गति,
व्यालोऽप्यश्वति पर्वतोऽप्युपलति क्ष्वेडोऽपि पीयूषति । विघ्नोऽप्युत्सवति प्रियत्यरिरपि क्रीडातडागत्यपां
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नाथोऽपि स्वगृहत्यटव्यपि नृणां शीलप्रभावाद् ध्रुवम् ।। ४० ।।
अन्वयः -
नृणां शीलप्रभावाद् ध्रुवं अग्निरपि तोयति, अहिरपि स्रजति, व्याघ्रोऽपि सारङ्गति, व्यालोऽपि अश्वति, पर्वतोऽपि उपलति, क्ष्वेडोऽपि पीयूषति, विघ्नोऽपि उत्सवति, अरिरपि प्रियति, अपांनाथोऽपि क्रीडातडागति, अटव्यपि स्वगृहति ।
१. मालिनीवृत्त ।
२. शार्दूलविक्रीडितवृत्त ।
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