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________________ ३६३ उद्बोधक कथाएं जो सामने है उसे असत्य भी कैसे किया सकता है? उधर लक्ष्मी ने भी अपना प्रभाव दिखाने के लिए मायाजाल फैलाया। उसने एक संन्यासिन का रूप धारण किया। वह भी घूमती-फिरती हुई उसी नगर में आ गई जहां संन्यासी वेश में विष्णु भगवान ने अपना डेरा डाला हुआ था। वह संन्यासिन नगर की गलियों से गुजरती हई एक महिला के घर के सामने रुकी। घर की मालकिन प्रतिदिन संन्यासीजी का प्रवचन सुनने जाया करती थी। उस दिन भी वह प्रवचन सुनने के लिए तत्परता से घर से बाहर निकल रही थी तो सामने देखा कि एक संन्यासिन उसके घर के बाहर खड़ी है। उसका भगवा वेश, चमकती हुई आंखें, हाथ में कमण्डलू, ललाट पर तिलक-छापा और गले में पहनी हुई रुद्राक्ष की मालाएं आदि संन्यासिन के लक्षण को बता रहे थे। उसका कण्ठ प्यास के मारे सूखा जा रहा था। उसने मुंह पर ऊब लगाकर धीमे स्वर में मालकिन से पानी पिलाने का अनुरोध किया। गृहस्वामिनी ने उसे झिड़कते हुए तपाक से कहा-क्या तुम्हें पानी मांगने के लिए यही घर मिला? क्या इस मोहल्ले में दूसरा कोई पानी पिलाने वाला है ही नहीं? क्या तुमने मेरा घर प्याऊ समझ लिया? मुझे पहले ही प्रवचन में जाने की देरी हो गई, फिर तुम पानी पिलाने का कहकर मेरे और देरी कर रही हो। नहीं, मालकिन! मैं तुम्हारे देरी कहां कर रही हं, केवल पानी मांग रही हूं। मुझे अत्यधिक प्यास लगी है। मेरी कंठ सूखा जा रहा है। मुझे क्या पता था कि तुम्हारी जैसी धर्मात्मा औरत भी पानी जैसी तुच्छ वस्तु के लिए इन्कार कर देगी। कहीं मेरे प्राण न निकल जाएंयह कहती हुई संन्यासिन प्यास से अधमरी होने का स्वांग रचने लगी। ___ मालकिन मन ही मन बड़बड़ाती हुई सोचने लगी-कैसी बला मेरे गले में पड़ी है? कहीं यह मेरे घर के सामने मर गई तो अकारण ही एक मुसीबत खड़ी हो जाएगी? अच्छा है, इस बला से पहले पिंड छुड़ा लूं। मालकिन शीघ्रता से मकान के भीतर गई और पीतल के एक लोटे में जल भरकर ले आई। अनमने भाव से उसने पानी का वह लोटा संन्यासिन को दे दिया। संन्यासिन ने ठंडा जल पीकर एक गहरा श्वास लिया और तृप्ति का अनुभव करती हुई बोली-बेटी! तुम्हारा भला हो, परमात्मा तुम्हें शतायु बनाए। लो, तुम्हारा यह लोटा। अब मैं जाती हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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