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सिन्दूरप्रकर
ज्योंही मालकिन ने उस लोटे को अपने हाथ में लिया तो वह स्वर्णिम आभा से चमक रहा था । लोटे को देखकर मालकिन की आंखें खुली की खुली रह गई । वह एकाएक भौचक्की-सी खड़ी रह गई । अरे! यह क्या? यह तो सोने में बदल गया। वह समझ ही नहीं पाई कि यह आकस्मिक चमत्कार क्यों, कैसे घटित हुआ ? वह तत्काल संभली । उसने जाती हुई संन्यासिन को रोकते हुए कहा-मांजी ! जरा ठहरो तो सही । मैं आपसे कुछ जानना चाहती हूं।
बेटी ! क्या जानोगी ? तुम्हें पहले ही प्रवचन जाने में देरी हो गई । फिर और देरी करने से क्या प्रयोजन ? मुझसे बातें करोगी तो तुम्हारा और समय बीत जाएगा? फिर तुम संन्यासीजी का प्रवचन भी नहीं सुन सकोगी, संन्यासिन ने वापिस मुड़ते हुए कहा ।
मांजी ! प्रवचन तो फिर भी सुनने को मिल जाएगा, किन्तु आपसे बातें करने का अवसर कब आएगा ? इसलिए मैंने अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए आपको रोका है।
ठीक है, बेटी! कहो, तुम क्या कहना चाहती हो ?
मालकिन ने कुतूहल और जिज्ञासा से भरते हुए पूछा- मांजी ! मैंने आपके हाथ में पानी पीने के लिए पीतल का लोटा दिया था । वह आपके हाथों का स्पर्श पाकर सोने का हो गया है। क्या आपके हाथ में जादुई चमत्कार है अथवा आपने ऐसा चमत्कार दिखाने के लिए यह करिश्मा किया है ?
संन्यासिन बोली- यह सब भगवान की कृपा है।
तत्काल मालकिन ने पूछा- संन्यासिनजी ! आप कहां ठहरी हुई हो ? ठहरना तो संन्यासियों का कम ही होता है। वे प्रायः घूमते ही रहते हैं । इस नगर में आई हूं तो कहीं विश्राम भी करना पड़ेगा, संन्यासिन ने
कहा।
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अच्छा है यदि आप कुछ दिन मेरी इस झोपड़ी में ठहर जाएं और मुझे अपनी सेवा का अवसर दें। उससे मुझे भी आपकी संगत में रहकर धर्म का लाभ मिल जाएगा।
संन्यासिन ने हंसते हुए कहा-बेटी ! साधु-संन्यासी तो भक्ति के भूखे होते हैं । तुम्हारी यदि ऐसी भावना है तो मुझे रहने में कौनसा कष्ट है ? मैं अवश्य ही तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति को स्थान दूंगी।
यह सुनते ही मालकिन हर्ष से फूली नहीं समाई । वह संन्यासिन को
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