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________________ ३६२ सिन्दूरकर से अवसर दें। यह मेरा परम सौभाग्य होगा कि मेरे पूरे परिवार को धर्मश्रवण का लाभ मिलेगा और वहां दूसरे दूसरे लोग भी ज्यादा से ज्यादा धर्म का लाभ ले सकेंगे। संन्यासी ने कुछ गंभीर चिंतन करते हुए कहा - सेठजी! आपकी भावना प्रशंसनीय है। आपकी भक्ति अत्युत्तम है। आप जानते हैं कि चातुर्मास दस-बीस दिनों का नहीं है, वह पूरा चार महीनों का है। इन चार महीनों में मैं मकान छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाऊंगा । महात्माजी ! आप निश्चिन्त रहें। आपको कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होगी, सेठजी ने बलपूर्वक कहा । संन्यासी ने पुनः व्यवस्थापक्ष प्रस्तुत करते हुए पूछा- सेठजी ! आप मुझे अपना मकान तो दे दोगे। उसमें आपकी ओर से क्या क्या व्यवस्था रहेंगी ? मै अपनी ओर से भवन के खाली स्थान में एक विशाल पंडाल बनवा दूंगा। नगर की जनता वहां बैठकर आपके प्रवचनों का लाभ लिया करेगी। भवन की स्वच्छता तथा आने-जाने वालों के लिए भोजन-पानी की भी समुचित व्यवस्था रहेगी। इसके अतिरिक्त अन्य कोई आपका आदेश- निर्देश हो तो मुझे बताएं, सेठजी ने हाथजोड़ कर कहा । इतनी व्यवस्था जुटाना कोई कम बात नहीं है। तुम्हारे जैसे उदार चित्त वाले भक्त ही ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं। फिर भी अन्य कोई व्यवस्था अपेक्षित होगी तो अवश्य ही मैं तुम्हें संकेत दे दूंगा, संन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा । संन्यासी ने शुभ दिन और शुभ मुहूर्त्त देखकर सेठजी के विशाल भवन में चातुर्मासिक मंगल प्रवेश कर दिया। अब प्रतिदिन एक निश्चित समय पर संन्यासीजी का मंगल प्रवचन होने लगा। जिस प्रकार बरसात के दिनों में घटा उमड़-घुमड़कर सारे आकाश को आच्छन्न कर देती है वैसे ही संन्यासीजी भी प्रवचन की सरसता के कारण जनता के हुजूम से घिरे रहते थे। सारे नगर में धर्म की अच्छी प्रभावना थी। लोगों की निरन्तर श्रद्धा-भक्ति बढती जा रही थी। वे संन्यासीजी के प्रवचनों तथा दर्शन और सेवा का भरपूर लाभ ले रहे थे। लोगों का धर्म के प्रति बढता आकर्षण देखकर विष्णु भगवान मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे और सोच रहे थे- मैंने लक्ष्मीजी से जो कुछ कहा था वह अक्षरशः बिल्कुल यथार्थ है। इसमें निश्चित ही मेरी विजय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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