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________________ उद्बोधक कथाएं ३६१ नारायण, ॐ नमो नारायण' कहते हुए शहर के राजपथ पर चले जा रहे थे। लोगों की अपार भीड़ उनके पीछे-पीछे चलती हुई उनके कदमों का अनुसरण कर रही थी। जय-जयकार के नारों से सारा राजपथ गुंजायमान था। व्यस्त रहने वाले व्यक्ति भी अपने-अपने कामों को छोड़कर उनकी झलक पाने के लिए घर और दुकान से बाहर निकल रहे थे। जहां भी, जिधर भी, जिस किसी की ओर संन्यासी की दृष्टि चली जाती, लोग श्रद्धा से झूमकर उनको देखने लग जाते, उनका मस्तक भक्तिपूर्वक झुक जाता। उनका चमकता हुआ चेहरा, मुख पर तपस्या का ओज, वाणी का माधुर्य तथा प्रभु-भक्ति से भीगा हुआ मानस अनायास ही जन-जन को अपनी ओर खींच रहा था। वे प्रतिदिन अपने प्रवचन से जन-मानस को आह्लादित कर रहे थे। प्रत्येक व्यक्ति भक्तिरस से आप्लावित होकर उनका प्रवचन सुनने का रसिक बना हुआ था। उनका प्रवचन सुनकर लोग अपना अहोभाग्य मानते हुए अनेक रूपों में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। कोई कह रहा था-वाह! कैसा कमाल का प्रवचन है। जीवन में नया प्रकाश मिल गया। कोई कह रहा था-जीवन में प्रवचन तो बहतों के सुने, किन्तु इनका प्रवचन तो बड़ा ही हृदयग्राही और कायाकल्प करने वाला है। कोई कह रहा था-संन्यासी तो बड़ा ही अलौकिक और पहुंचा हुआ है। इस प्रकार नगर के अनेक लोगों की जुबान पर अभिव्यक्त होने वाली विविध प्रतिक्रियाएं सुनने को मिल रही थीं। जहां देखो वहीं संन्यासी की यशोगाथा गाई जा रही थी। संन्यासी भी यत्र-तत्र विभिन्न स्थानों पर अपना प्रवचन दे रहे थे। उनके प्रवचन में जनता की संख्या भी निरन्तर बढ़ती जा रही थी। एक-एक कर दिन बीतते जा रहे थे। चातुर्मास का काल सन्निकट था। संन्यासी भी चातुर्मास बिताने के लिए किसी विशाल जगह की टोह में थे। वे सोच रहे थे कि स्थान ऐसा हो, जहां मेरे रहने की समुचित व्यवस्था हो और अधिकाधिक जनता भी प्रवचन का लाभ ले सके। इसी उधेड़बुन में उनके कुछ दिन और निकल गए। अचानक एक दिन किसी सेठजी ने अपने विशाल भवन की प्रार्थना करते हुए कहा-महात्माजी! आप मेरी झोपड़ी को पावन करने की कृपा करें। वह दो वर्ष पूर्व ही बनकर तैयार हुई है। अभी तक हमने वहां रहना भी प्रारम्भ नहीं किया है। मैं चाहता हूं कि आपके पवित्र चरणों के स्पर्श से ही उसका मुहूर्त हो। आप वहां अपना चातुर्मास बिताएं, हमें आपकी सेवा का निकटता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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