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सिन्दूरप्रकर
जनमानस का धर्म से इतना अधिक प्रभावित होना अपने आपमें आश्चर्यजनक है। लोगों की मेरे प्रति कितनी अधिक भक्ति है। उस भक्ति से मेरा मन फूला नहीं समा रहा है। वास्तव में भक्ति ही भगवान को वश में करती है। भगवान तो भक्ति के ही भूखे होते हैं। भक्ति के आधार पर ही वे भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं।
लक्ष्मी ने कहा-भगवन् ! कौन किसका भजन करता है ? कौन धर्म से प्रभावित होता है ? किसमें कितनी भक्ति है और किसमें किसी को वश में करने की कितनी शक्ति है, वह सब मैं सम्यक् प्रकार से जानती हूं। यह सारा दिखावा है। उस भक्ति के अन्तस्तल में है- धन, संपति की प्राप्ति की कामना । वह कामना ही उनको भक्ति की प्रेरणा देती है।
नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है, तुम्हारी समझ सही नहीं है। धर्म के प्रति आकर्षण अथवा जनमानस में उमड़ती भक्ति का धन-संपत्तिलक्ष्मी के साथ क्या मेलजोल ? वहां तो लोगों की धार्मिक भावना का प्रश्न है, वहां तुम्हारी क्या उपयोगिता ? भगवान विष्णु ने लक्ष्मी की बात को काटते हुए कहा ।
लक्ष्मी बोली- भगवन् ! आप सही मानें, जब तक मेरी माया है तब तक ही यह सारा संसार आपकी मुट्ठी में है, अन्यथा वह बिल्कुल शून्य है। जहां मैं जाती हूं, लोग मेरे वशीभूत हो जाते हैं। वे वहां धर्म-कर्म को भी छोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। यदि आपको मेरे कथन पर विश्वास न हो तो आप इसका परीक्षण कर देख लें। उसमें कौन खरा उतरता है? वह आपको ज्ञात हो जाएगा और साथ में मेरा अभिमत भी पुष्ट हो जाएगा ।
विष्णु भगवान लक्ष्मी के विचार से सर्वथा असहमत थे, किन्तु वे अपने पक्ष को भी दृढता से सिद्ध करना चाहते थे। उसके लिए परीक्षण के सिवाय कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। उन्होंने लक्ष्मी के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए कहा-लक्ष्मि ! तुम जो कहती हो वह मुझे किंचित् भी मान्य नहीं है। फिर भी तुम्हारी बात मानकर मैं सत्य को परीक्षण की कसौटी पर कस कर ही कुछ कह सकूंगा ।
दोनों परीक्षण के लिए मर्त्यलोक में अवतरित हुए । विष्णु भगवान ने एक संन्यासी का रूप बनाया। उनकी लम्बी-लम्बी जटाएं, गले में शोभती अनेक प्रकार की मालाएं, माथे पर तिलक छापा तथा पीताम्बर वेश जनता के लिए कुतूहल का विषय बना हुआ था। वे 'ॐ नमो
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