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________________ उद्बोधक कथाएं ३५९ आप यहां न रहकर अपने पीछे क्या दरिद्रनारायण को मेरे घर में छोड़ना चाहती हैं? सेठजी ने गंभीर होते हुए कहा । नहीं, नहीं, मेरा उद्देश्य यह नहीं है और न मैं यह चाहती हूं कि मेरी अनुपस्थिति का कोई नाजायज फायदा उठाकर आपके घर में कोई रहे। यदि आपको ऐसी आशंका है तो आप मेरे अस्तित्व को छोड़कर जो चाहो वह वरदान ले सकते हो। मैं देने को सहर्ष तैयार हूं, महालक्ष्मी ने अपना अनुग्रह बरसाते हुए कहा । सेठ ने प्रार्थना के स्वर में कहा - महालक्ष्मि ! यदि आपका ऐसा ही अनुग्रह है और आप कुछ देना ही चाहती हैं तो मेरा आपसे यही अनुरोध है कि आपके चले जाने पर भी मेरे घर में सदा संप - प्रेम बना रहे। उसमें कहीं कोई न्यूनता न आए। लक्ष्मी ने अपना सिर पकड़ते हुए कहा - सेठजी! आपने यह क्या किया ? आपकी मांग का अर्थ है कि आपने मुझे भी बान्ध लिया। जहां संप होता है वहां संपत्ति होती है। जहां संपत्ति होती है वहां मेरा निवास होता है, इसलिए अब मुझे और कहीं जाने का अवकाश ही नहीं है। तुम्हारा घर ही मेरा आश्रय है। यह कहकर देवी अन्तर्धान हो गई। सेठजी ने अपनी सूझबूझ से लक्ष्मी को भी अपने घर में सुरक्षित रख लिया । ३२. प्रभुत्व किसका : धन या धर्म का ? एक बार भगवान विष्णु और लक्ष्मी आकाश मार्ग से स्वर्ग की ओर जा रहे थे। अचानक विष्णु की दृष्टि मनुष्यलोक पर पड़ गई। उन्होंने देखा कि नीचे एक मंदिर में विष्णु भगवान की पूजा-अर्चना हो रही है । अनेक वैष्णव भक्त इकट्ठे होकर तन्मयता से भजन-कीर्तन कर रहे हैं। कोई भगवान को भोग लगा रहा है, कोई उनकी आरती उतार रहा है। कोई उनकी परिक्रमा कर रहा है, कोई सिर झुकाकर उनके चरणों में प्रणाम कर रहा है। कोई भगवान की प्रसादी भक्तजनों में बांट रहा है, कोई घंटा बजाकर जयनाद कर रहा है। चारों और धर्ममय वातावरण देखकर विष्णु भगवान अत्यन्त प्रमुदित हुए । उन्होंने लक्ष्मी को संबोधित कर कहा- देवि ! इस कलयुग में भी लोगों का धर्म के प्रति कितना आकर्षण है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है यह मर्त्यलोक । भौतिकता की चकाचौंध में For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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