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सिन्दूरप्रकर हुए हो अथवा जाग्रत हो? शब्द सुनकर सेठजी अर्धनिद्रा से उठे, इधरउधर देखा, कुछ दिखाई न देने पर मन का बहम समझकर पुनः निद्राधीन हो गए। कुछ समय बीतने पर पुनः तीसरी बार वही आवाज कानों में सुनाई दी-सोए हुए हो या जाग रहे हो? सेठजी तत्काल हड़बड़ाकर निद्रा से उठे, आंखों को मला। अचानक उन्होंने दरवाजे की ओर निहारा, देखा तो कोई नहीं था। पुनः दृष्टि खिड़की की ओर मुड़ी। सामने झांका तो एक धुंधली-सी छाया उभरती हुई नजर आई। सेठजी अपलक नेत्रों से उस छाया को देख रहे थे। कुछ ही क्षणों में वह छाया स्पष्ट होकर सेठजी के सामने आ खड़ी हुई। अनजान आकृति और अपूर्वदृष्ट दृश्य को देखकर सेठजी जरा चौंके, किन्तु दूसरे ही क्षण अपने आपको संभालते हुए स्थिरमना हो गए। मन से भयभीत होते हुए भी वे उस दिव्यशक्ति के प्रति प्रणत थे। वह दिव्यशक्ति महालक्ष्मी सामने खड़ी थी। वह सेठजी को भावी का कुछ निर्देश देने आई थी।
देवी की दिव्य आभा से उनका कमरा ऐसा जगमगा रहा था कि मानो हजारों विद्युत् बल्व उनके कमरे में जले हुए हों। उनका कंचनमय शरीर चारों ओर अद्भुत आभा से चमक रहा था। ललाट पर आभायुक्त मुकुट और गले में शोभित होती हुई मालाएं आंखों को चुंधियां रही थीं। उनके पैर जमीन से चार अंगुल ऊपर स्थिर थे। सेठजी ने प्रणतमुद्रा में सिर झुकाकर देवी को प्रणाम किया और पूछा-पद्मे। इस समय आपका आगमन क्यों और कैसे?
मुझे आपसे कुछ कहना है, उसी के निर्देशन के लिए मैं यहां उपस्थित हुई हूं-लक्ष्मी ने कहा।
कहिए, आपकी बड़ी मेहरबानी होगी, सेठ ने प्रत्युत्तर में कहा।
आपके घर में रहते हुए मुझे लगभग चालीस वर्ष हो गए हैं। अब मेरा मन आपके घर से उचट गया है। मैं और कहीं जाना चाहती हूं। आप जानते हैं कि मेरा स्वभाव चंचल है। मैं एक स्थान पर अधिक ठहरना पसन्द नहीं करती। लोग भी मुझे 'चला लक्ष्मी' कहकर पुकारते हैं। मैं दूसरों के यहां प्रस्थान करूं, उससे पूर्व आप अपनी वैकल्पिक व्यवस्था सोच लें, यही मैं आपको सूचित करने आई हूं।
आना-जाना आपका स्वतन्त्र अधिकार है, आपको बलपूर्वक रोकना भी मेरी हठधर्मिता ही होगी। मैं आपको रोक सकूँ, यह भी मेरे हाथ में नहीं है। उस स्थिति में मैं केवल आपसे यही जानना चाहता हूं कि
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