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________________ उद्बोधक कथाएं ३४७ धारिणी था। रानी स्वभाव से धर्मपरायण महिला थी। एक दिन राजा अपने राजपरिवार के साथ सज-धजकर भंडीरवन नामक चैत्य की यात्रा के लिए जा रहा था। मार्ग में एक वणिक्पुत्र ने यवनिका से बाहर निकले हुए महारानी के पैरों को देखा। पैरों में नुपूर पहने हुए थे, उनमें अलक्तक लगा हुआ था। युवक ने सोचा कि जिस स्त्री के चरण इतने सुन्दर हैं तो उसका रूप कितना सुन्दर होगा ? वह मन ही मन उसमें आसक्त हो गया। उसने राजमहल के पास ही एक दुकान खरीद ली। वह उसमें सुगन्धित द्रव्यों का व्यापार करने लगा। जहां अन्यान्य लोग उस दुकान से गन्धद्रव्य खरीदते थे तो रानी की दासियां भी महारानी के लिए वहां से सुगन्धित द्रव्यों को खरीदती थीं। एक दिन युवक ने दासियों से पूछाइन बहुमूल्य गन्धद्रव्यों को कौन मंगाता है ? दासियों ने कहा- रानीजी । युवक गन्धद्रव्यों के साथ एक भोजपत्र पर कुछ लिखा और उसे दासियों के साथ महारानी के पास भेज दिया। महारानी ने उसकी भावना को जानकर पुनः दासियों के साथ एक पत्र के माध्यम से कहलवाया - मैं तुम्हें नहीं चाहती हूं। पत्र को पढ़कर युवक उदास हो गया। उसने सोचा- जब तक मुझे रानी प्राप्त न हो जाए तब तक मैं जीवित नहीं रह सकता । वह वहां से चला गया और दूसरे राज्य में रहने लगा। वहां वह सिद्धपुत्रों के आश्रम में रहा। वहां नीति की बात चल रही थी । उसका सार था कि व्यक्ति को कभी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। त्वरा करने वाला व्यक्ति कभी अपने लक्ष्य में सफल नहीं होता । उस वणिक्पुत्र ने भी उस नीतिवाक्य को सुना और सोचा- मैं भी अपने घर जाऊं और त्वरा न कर राजा की रानी को पाने का प्रयत्न करूं। यह सोचकर वह अपने देश लौट आया। वहां अनेक दंडरक्षक चांडाल विद्यासिद्ध थे। वह उनके पास गया और कहा- क्या तुम मुझे राजा की रानी से मिला सकते हो ? चांडालों ने सोचा - रानी तो उसे तब मिल सकती है जब उस पर कोई झूठा कलंक लगे । झूठा कलंक लगने पर राजा स्वतः ही उसे छोड़ देगा। विद्यासिद्ध चांडालों ने विद्याबल से मारी की विकुर्वणा की । मारी के प्रभाव से लोग मरने लगे। राजा ने चांडालों से कहा- तुम मारी के कारणों की खोज करो । विद्यासिद्ध पुरुषों एक दिन रात्रि में रानी के वासगृह में मनुष्य के हाथ-पैरों की त्रिकुर्वणा की और रानी का मुंह रक्त से खरंटित कर दिया। उन्होंने राजा से निवेदन किया - महाराज! आप अपने घर में खोज करें, मारी वहीं से For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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