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सिन्दूरकर
दिया । दासियों ने गांधर्विक के गायन की प्रशंसा करते हुए कहा- हमने आज जो गायन सुना है उसे बिना सुने कोई भी उसके माधुर्य की कल्पना नहीं कर सकता। हमारे विलम्ब आने का वही रसीला गायन निमित्त बना है । भद्रा का मन भी गांधर्विक को देखने-सुनने के लिए लालायित हो उठा।
एक बार नगर-देवता की शोभा यात्रा निकलने वाली थी। नगर के लोग मन्दिर में इकट्ठे हुए । भद्रा भी वहां आई। लोग नगरदेवता को प्रणाम कर अपने-अपने घर जा रहे थे । भद्रा भी देवता को प्रणाम कर मन्दिर की परिक्रमा करने लगी। वहां एक व्यक्ति सोया हुआ था। दासी ने उसे पहचानते हुए भद्रा से कहा - यह वही पुष्पशाल गान्धर्विक है, जिसके गायन की हमने प्रशंसा की थी। लगता है कि यह गाने से परिश्रान्त होकर यहीं सो गया है। भद्रा ने उसे भली-भांति देखा। वह कुरूप और दंतुर था। भद्रा ने घृणा से भरते हुए कहा- जब इसका रूप ही अच्छा नहीं है तब भला इसकी गायनकला क्या अच्छी होगी? यह तो इसे देखकर ही पता लग रहा है, यह कहकर उसने उस पर थूक दिया। वह वहां से चली गई । गायक की निद्रा भंग हुई। लोगों ने उससे भद्रा के अशिष्ट व्यवहार की बात कही। वह मन ही मन कुपित हुआ। दूसरे दिन वह भद्रा के घर गया और घर के बाहर प्रातःकाल प्रोषितपतिका द्वारा बनाया गीत गाने लगा । कैसे वह पूछता है, कैसे चिन्तन करता है, कैसे पत्र लिखता है, कैसे आकर घर में प्रवेश करता है इत्यादि भावों की अभिव्यक्ति उस गीत के माध्यम से हो रही थी । भद्रा ने गीत की स्वरलहरियों को सुना। उसने सोचा- शायद पतिदेव परदेश से आ गए हैं । वे पास में ही होंगे। मैं वहां जाऊं। उनका स्वागत करूं। वह तत्काल उठकर चलने लगी और अपनी असावधानी के कारण ऊपर से नीचे गिर कर मर गई ।
उसके पति ने सुना कि इस गायक ने ही मेरी पत्नी को मारा है। एक दिन उसने उस गायक को बुलाकर भरपेट भोजन कराया। भोजन के बाद सार्थवाह ने गायक से गाते हुए ऊपर चढ़ने को कहा। उसने गाना प्रारम्भ किया। ऊर्ध्व श्वास से उसका सिर फूट गया और वह वहीं मर
गया।
२. चक्षुरिन्द्रिय की दासता
मथुरा नाम की नगरी । वहां का जितशत्रु राजा और रानी का नाम
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