SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उद्बोधक कथाएं ३४५ राजन! हम एक ही मां के दोनों सगे भाई हैं। एक बार एक बहेलिए ने हम दोनों को पकड़ लिया। हम उसके जालपाश में फंस गए। उसने अपनी कमाई का साधन बनाकर मेरे एक भाई को चोरों के हाथ बेच दिया। चोर उसको अपनी पल्ली में ले गए। बहेलिए ने मुझे एक संन्यासी के हाथ बेच दिया। मैं साधु-संन्यासियों की संगत में आ गया। मेरा बड़ा भाई शुक रात-दिन उन चोरों की अश्लील, अशिष्ट और गंदी भाषा को सुनता है। वे चोर प्रायः दूसरों के लिए मारो, काटो, छेदो, लूटो आदि भाषा का प्रयोग करते हैं, इसलिए वह तोता भी उनकी वाणी में बोलना सीख गया। संगत की रंगत का प्रभाव सब पर होता है। इसके विपरीत मैं साधु-संन्यासियों के पास रहा। संन्यासी की वाणी मधुर और शिष्टतापूर्ण होती है। वे दूसरों का सम्मान--स्वागत है, आइए, पधारिए आदि सम्मानसूचक शब्दों का उच्चारण कर करते हैं। मैं उनकी संगत में रहकर उसी वाणी में बोलना सीख गया। यही हम दोनों के संस्कारों में अन्तर है। आपने भी साक्षात् इसका अनुभव कर लिया है। ___राजा ने शुक के कथन से एक नया बोधपाठ ग्रहण किया और वह भलीभांति समझ गया। उसने निष्कर्ष निकाला कि जो गुणिजनों के संसर्ग में रहता है वह बुरा होते हुए भी अच्छा बन जाता है। जो अगुणिजनों की संगति में पड़ जाता है उसके गुण भी दोषरूप में परिणत हो जाते हैं। इसलिए गुणिजनों का संगम जीवन को सद्संस्कारों से भावित करता है। २९. इन्द्रियों की दासता १. श्रोत्रेन्द्रिय की दासता वसन्तपुर नाम का नगर। वहां पुष्पशाल नाम का एक गांधर्विक रहता था। वह रूप में बीभत्स था, किन्तु कंठकला में बेजोड़ था। उसके स्वरों में माधुर्य था। उसने अपनी गायनकला से वसन्तपुर के लोगों का दिल जीत लिया था। उसी नगर में एक सार्थवाह भी रहता था। एक बार वह दिग्यात्रा के लिए प्रस्थित हुआ। उसकी पत्नी भद्रा ने किसी प्रयोजनवश अपनी दासियों को बाहर भेजा। वे दासियां उस गांधर्विक का गायन सुनने में मुग्ध हो गई। उन्हें कालबोध का भान ही नहीं रहा। वे विलम्ब से घर पहुंची। भद्रा ने उनको विलम्ब से पहुंचने का उपालम्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy