________________
३४४
सिन्दूरकर
२८. संगत की रंगत
एक राजा वन-विहार का अति शौकीन था । उसे नए-नए जंगल देखने की उत्कंठा बनी रहती थी । राज्यभार के व्यस्त क्षणों का विसर्जन कर वह कुछ समय प्रकृति के अंचल में बिताना चाहता था । प्रकृति का सुरम्य वातावरण, चारों ओर फैली हरीतिमा, नए-नए पक्षियों के दर्शन, वृक्षों की सघन छाया, कहीं पहाड़ियां तो कहीं तलहटियां, बहते हुए निर्झर तथा मन्द मन्द बहती शीतल और शुद्ध वायु आदि उसके मन का संताप हरने वाले थे। वह खुले आकाश में रहकर जितना प्रसन्न था उतना चहारदीवारी में रहना कम पसन्द करता था ।
एक दिन राजा मंत्री आदि राज्याधिकारियों के साथ जंगल में गया। नए-नए दृश्यों को निहारता हुआ वह सघन जंगल में पहुंच गया। एक स्थान पर वह चोरों की पल्ली से होकर गुजर रहा था। पल्ली के बाहर एक वृक्ष पर एक पिंजरा लटका हुआ था। एक प्रशिक्षित तोता उसमें आबद्ध था। राजा को देखते ही तोता जोर-जोर से बोलने लगा - मारो, काटो, छेदो, पकड़ो, लूटो । राजा ने उन अपमानजनक और असभ्यशब्दों को सुना। उनसे उसका मन आहत हुआ। वह चाहता तो उसे मार भी सकता था, किन्तु एक पक्षी को मारने में कौन-सा सार था ? राजा वहां से निकलकर कुछ आगे बढ़ा। कुछ ही दूरी पर उसे संन्यासियों का एक बड़ा आश्रम दिखाई दिया। वहां भी आश्रम के परिसर के बाहर वृक्ष की शाखा पर एक पिंजरा लटका हुआ था। उसमें भी एक प्रशिक्षित तोता प्रतिबन्धित था। वह भी राजा को देखते ही जोर-जोर से बोलने लगास्वागत है, सुस्वागत है, आइए, पधारिए, अभ्यागत का स्वागत है । राजा ने उन सम्मानसूचक और माधुर्यपूर्ण शब्दों को भी सुना। उसका मन उन शब्दों से बहुत ही प्रफुल्लित और प्रभावित हुआ। राजा समझ नहीं पा रहा था कि एक ही जाति के दो तोतों के संस्कारों में इतना अन्तर क्यों ? पहले वाले तोते ने अशिष्ट और भद्दे शब्द कहकर मेरा अपमान किया और इस तोते ने सभ्यवचनों का प्रयोग कर मेरा स्वागत किया। उसकी जिज्ञासा मुखर हुई। आखिर राजा ने उस तोते से ही उसका कारण जानना चाहा । तोते ने राजा को समाहित करते हुए कहा
'गवाशनानां स शृणोति वाक्यमहं च राजन् ! मुनिपुङ्गवानाम् । प्रत्यक्षमेतद् भवतापि दृष्टं, संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति । । '
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org