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________________ उद्बोधक कथाएं ३४३ अपनी असत्प्रवृत्ति के द्वारा पाप का अर्जन करता है, उसको अकेले ही उसका फल भोगना होता है। रत्नाकर ने जब यह सुना तो उसका सारा मिथ्याभ्रम टूट गया। सचाई प्रत्यक्ष हो गई। ऋषियों का सत्यवचन बार-बार उसके अन्तर्नाद में गूंजने लगा। वह तत्काल उल्टे पांव ऋषियों के पास लौटा और उनके चरणों में प्रणत होते हुए बोला- महात्मन्! आप लोगों ने मुझे सत्य का आलोक दिया है। आज तक मेरे नेत्र अज्ञान के अन्धकार से निमीलित थे। वे आज उस आलोक से खुले हैं। आज मुझे एक नया बोधपाठ मिला है - सभी लोग बाह्य पदार्थों में अपना हिस्सा बंटाने में तत्पर होते हैं, किन्तु आन्तरिक पाप को भोगने में कोई भी भागीदार नहीं बनना चाहता । ऋषिवर! मैंने अतीत में जो कुछ किया, अज्ञानवश किया। उसका अब मैं परिमार्जन करना चाहता हूं। मुझे अब इस कार्य से घृणा हो गई है। आज से ही मैं इस घृणित कार्य को छोड़ रहा हूं। अब आप मेरा मार्गदर्शन करें? मुझे भविष्य के लिए कोई कल्याणकारी मार्ग सुझाएं। सप्तर्षि उसके इस आकस्मिक रूपान्तरण पर अत्यधिक प्रभावित हुए। ऋषियों के एक वचन ने उसके सारे जीवन को बदल दिया । सत्संगति से उसका कायाकल्प हो गया। ऋषियों ने रत्नाकर को एक मंत्र देते हुए कहा- जब तक हम वापिस न आ जाएं तब तक तुम इस मंत्र का निरन्तर जाप करते रहना । ऋषि दिशानिर्देश कर वहां से प्रस्थान कर गए। रत्नाकर उसी दिन से मंत्र जाप में लग गए। न उन्हें खाने की सुध थी तो न पीने की । रात-दिन उनका मंत्र का जप चलता रहता था। मंत्र - साधना में उनकी इतनी अधिक तल्लीनता बढी कि उन्हें काल का बोध भी नहीं रहा । दिन, मास और वर्ष बीतते चले गए। उनके चारों ओर धूल 'की बांबी-सी जम गई। लम्बे अन्तराल के पश्चात् सप्तर्षि उसी मार्ग से लौटे। जब उन्होंने रत्नाकर की समाधि को देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने रत्नाकर को संबोधित कर कहा - रत्नाकर! तुम्हारे जीवन में आश्चर्यजनक रूपान्तरण हुआ है। तुम अपनी साधना में सफल हुए हो । अब तुम सद्कर्म करो और अपनी कर्मसाधना से संसार को नया आलोक दो। ध्यान में अवस्थित होने के कारण उनका शरीर वल्मीक अर्थात् बांबी से ढक गया था, इसलिए उनका नाम लोगों में रत्नाकर से वाल्मीकि विश्रुत हो गया । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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