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________________ ३४२ सिन्दूरप्रकर लिए गौण है। इसलिए तुम सब मेरी बात मानकर यहां सब कुछ रख दो, वरना इस बाण के सामने आ जाओ। दूसरे ऋषि ने शान्तभाव से उसे समझाते हुए कहा-भैया! हमने माना कि तुम्हें परिवार चलाने के लिए ऐसा जघन्य कार्य करना पड़ रहा है। इस घृणित और हेय कार्य को कौन अच्छा कहेगा? फिर भी मैं तुमसे पूछ लेता हूं कि जो धन तुम्हारे द्वारा अपहृत किया जा रहा है उसका हिस्सा बंटाने वाले तो परिवार के सभी सदस्य हैं, किन्तु इस अमानवीय कार्य से तुम कितने पापों का अर्जन कर रहे हो उसमें कौन-कौन भागीदार हैं, क्या कभी तुमने सोचा? । रत्नाकर दृढ़ विश्वास के साथ बोला-इसमें सोचना क्या है? जो धन के हिस्सेदार हैं वे पाप के हिस्सेदार क्यों नहीं होंगे, अवश्य होंगे। तीसरे ऋषि ने मुस्कराते हुए कहा-वत्स! यह तुम्हारा भ्रम ही है। हमें तो लगता है कि तुम अभी तक भ्रम के जाल में फंसे हुए हो। तभी तुम ऐसी बात कह रहे हो। रत्नाकर ने तत्काल सप्तर्षियों को आश्वस्त करते हुए कहा-यदि तुम लोग मेरा भ्रम ही अनुभव कर रहे हो तो मैं अभी घर जाता हूं और परिवार के सदस्यों से पूछकर जान लेता हूं कि वे मेरे द्वारा कृत पाप में सहभागी हैं या नहीं। पर तुम यहां से कहीं और चले गए तो....। ऋषियों ने उसको वचन देते हुए और प्रतिज्ञा करते हुए कहा-जब तक तुम यहां नहीं आ जाते तब तक हम कहीं जाने वाले नहीं है। ऋषिवचनों पर विश्वास कर रत्नाकर द्रुतगति से वहां से चला और सीधा अपने घर पहुंच गया। उसने परिवार के सदस्यों को इकट्ठा कर कहा-आज मैंने ऋषियों के मुख से एक नई बात सुनी है कि मैं अपने जीवन में भ्रम पाल रहा है। उसी के निवारण के लिए मैं आप लोगों के बीच आया हूं। मैं जानना चाहता हूं कि जिस प्रकार मेरे द्वारा लूटे खसोटे हुए धन में आप सब भागीदार हैं क्या उसी प्रकार मेरे द्वारा उपार्जित पाप में हिस्सा बंटाने के लिए भागीदार होंगे? ___सभी सदस्य इस विचित्र पहेली को सुनकर हक्के-बक्के रह गए, एक दूसरे का मुंह देखने लगे। सभी ने एक स्वर में कहा-भैया! हमने कब कहा था कि तुम ऐसा घृणित और अमानवीय काम करो। उसके पाप का फल तो तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। उसमें कोई भी भागीदार नहीं हो सकता। वह पाप न तो दिया जा सकता है और न लिया जा सकता है। जो व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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