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________________ उद्बोधक कथाए ३४१ अथवा उसे जीवन से हाथ धोना पड़ता । जानबूझकर कोई भी पथिक उस मार्ग से निकलने को तैयार नहीं था । रत्नाकर धीरे-धीरे एक कुख्यात खूंखार डाकू और लुटेरा बन गया। उसके इन कारनामों से सुदूर देशों में रहने वाले लोग भी उसके नाम से परिचित हो गए । एक दिन रत्नाकर अपने हाथ में धनुष-बाण लिए जंगल में घूम रहा था। वह खोज रहा था कि कोई राहगीर उसके चंगुल में फंसे और वह उसको लूटे। अचानक उसे कुछ ही दूरी पर सात ऋषि आते हुए दिखाए दिए । उसका मन प्रसन्नता से बांसों उछलने लगा। उसने सोचा- बहुत दिनों से कोई शिकार नहीं मिला था। अच्छा हुआ आज एक ही साथ सात-सात शिकार मेरे हाथ लग रहे हैं। मैं इनको लूटकर पिछले दिनों की रिक्तता की पूर्ति करूंगा। ऋषि अल्हड़ और मस्तप्रकृति के होते हैं। उन्हें जीने मरने का कोई भय नहीं होता। वे सदा परोपकार के लिए जीते और मरते हैं और कभी कभी दूसरों के हितार्थ बड़ी से बड़ी आपदा को भी स्वीकार कर लेते हैं। जब सप्तर्षि डाकू रत्नाकर के कुछ निकट आए तो वह उनका रास्ता रोककर बीच में खड़ा हो गया और उनको ललकारते हुए बोला - जो भी तुम्हारे पास में हो वह सब बिना किसी ननु नच के मुझे सौंप दो, अन्यथा मृत्युवरण के लिए तैयार हो जाओ। एक ऋषि ने आगे आकर रत्नाकर से कहा- वत्स! हम तो ऋषिमुनि हैं, वनवासी और घुमक्कड़ हैं। हम तो निरंजन, निराकार हैं । हमारे पास लेने-देने को क्या है ? हम तो भिक्षा मांगकर अपनी साधना करते हैं। हमारे पास तो केवल राम का ही नाम है। वह चाहो तो तुम ले सकते हो। फिर साधु-सन्तों के प्रति तुम्हारा ऐसा अनुचित और अकरणीय व्यवहार करना क्या शोभनीय है ? रत्नाकर ने गरजते हुए कहा- तुम कौन हो, क्या हो, कैसे हो, मैं नहीं जानता। मैं तो लूटना और मारना जानता हूं। मैंने तो बचपन से इसी भाषा को सीखा है। तुम लोग अपने आपको अकिंचन बताकर सत्य को छिपा रहे हो, मेरे साथ छलावा कर रहे हो। मुझे पता है कि यह अमीरी गरीबी की ओट में पलती है । मैं तुम्हारी बातों में आने वाला मूर्ख नहीं हूं। मुझे तो अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है, लूट-खसोट करना मेरा धन्धा है, यही मेरी आजीविका का साधन है। उसके लिए उचित क्या है, अनुचित क्या है, शोभनीय क्या है, अशोभनीय क्या है, सब मेरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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