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________________ उद्बोधक कथाएं ३३१ मुख पर मुखरित था । अनेक राजा और धनिक व्यक्ति भी उसकी यश-कीर्ति का लोहा मानते थे। वहां की प्रजा सर्वप्रकार से सुखी और संपन्न थी। उसी नगर में धनसार नाम का एक धनिक व्यक्ति रहता था। वह विपुल धन-धान्य तथा सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का स्वामी था । उसके चार पुत्र थे- धनदत्त, धनदेव, धनचन्द्र और धन्यकुमार। उनमें प्रथम तीन भाई क्रमशः लाला, बाला और काला - इन तीन उपनामों से लोगों में ज्यादा जाने जाते थे। चौथा भाई धन्यकुमार 'धनजी' के नाम से अधिक प्रसिद्ध था। चारों सगे भाई होते हुए भी प्रकृति से भिन्न थे। पहले तीन भाई झगड़ालू, ईर्ष्यालु, असहिष्णु और क्रोधी थे । उन तीनों को देखकर लगता था कि वे कौनसे पूर्वजन्म के संस्कारों को लेकर जन्मे हैं । उनके जीवन में धर्म-कर्म नाम का अंशमात्र भी नहीं था। वे पापकारी और अधार्मिक प्रवृत्तियों में लिप्त थे । माता - पिता ने तीनों को समझानेबुझाने और सुधारने का भरसक प्रयत्न किया, किन्तु उनके जीवन में जरा भी परिवर्तन नहीं आया। वे जहां थे वहीं रहे । अन्ततः मां-बाप ने उनको कुछ कहना-सुनना ही बन्द कर दिया। चौथा भाई धन्यकुमार पुण्यात्मा, प्रतिभावान्, सूझबूझ का धनी, सौभागी तथा सज्जनप्रकृति का था। उसके संस्कारों को देखकर लगता था कि वह पूर्वभव में कोई बड़ा धर्मात्मा रहा है। जब उसका सेठजी के घर जन्म हुआ तो लक्ष्मी ने उसके घर में पैर पसारना प्रारम्भ कर दिया। व्यापार दिनों-दिन बढ़ता ही गया। चारों ओर उन्नति ही उन्नति दिखाई देने लगी। उसके जन्म के बाद जब उसकी नाल गाड़ने के लिए भूमि में गड्ढा खोदा गया तो वहां से मोहरों का एक चरु निकला, इसलिए पुत्र का नाम भी धन्यकुमार रखा गया । वह कुलगौरव को मंडित करने वाला तथा धन-संपत्ति को बढ़ाने वाला था। उसमें विनय, अनुशासन, धैर्य आदि गुण थे। वह केवल अपने माता-पिता का ही विश्वासपात्र अथवा प्रियपात्र नहीं था, जन-जन के लिए भी स्नेहसिक्त बन गया । उसके अन्य तीन भाई धन्यकुमार से सर्वथा विपरीत थे। उन्होंने जो भी व्यापार किया, नुकसान ही हाथ लगा । उनके रूठे भाग्य ने कभी उनका साथ नहीं दिया। अपनी असत्प्रवृत्ति के कारण भी वे कभी किसी की प्रियता को नहीं ले सके । व्यक्ति की दुर्बलता है कि जब स्वयं में गुणों का अभाव होता है तो वह दूसरों की उन्नति को भी नहीं देख सकता, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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