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________________ ३३२ सिन्दूरप्रकर उसकी ख्याति-प्रख्याति भी नहीं सुन सकता। वह उसे येन केन प्रकारेण नीचा गिराने का प्रयत्न करता है अथवा उसको मारने का षड्यंत्र रचता है। धनदत्त, धनदेव, और धनचन्द्र तीनों भाई अपने छोटे भाई धन्यकुमार की उन्नति को कब सहन करने वाले थे? वे मन ही मन ईर्ष्या से भरे हुए थे। वे ऐसे अवसर की ताक में थे कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। तीनों मिलकर भाई को मारने की योजना बनाने लगे। प्रायः व्यक्ति बात को गुप्त रखना चाहता है, पर कभी न कभी उसका भेद भी खुल जाता है। धन्यकुमार को विश्वस्त सूत्रों से उस षड्यंत्र का पता लग गया। उसने सावधानी के लिए प्रतिष्ठानपुर नगर छोड़ना उचित समझा। रात्रि में वह वहां से प्रस्थान कर गया और चलतेचलते उज्जयिनी नगरी में जा पहुंचा। अपनी सूझ-बूझ से वह वहां के महाराज चंडप्रद्योत का मंत्री बन गया। उधर धन्यकुमार के माता-पिता पुत्र के चले जाने से दुःखी रहने लगे। धन्यकुमार के पैरों में निधान था। जब तक वह घर में रहा तब तक लक्ष्मी का अनुग्रह भी धनसार के घर में बना रहा। उसके चले जाने के बाद मानो लक्ष्मी ने भी धीरे-धीरे अपनी माया को समेटना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन वह आया जब धनसार दूसरों का मुंहताज बन गया, खाने के लाले पड़ गए। अभावग्रस्त होकर वह भी निर्धनता का जीवन जीने लगा। वह अपने तीनों पुत्रों, पुत्रवधुओं तथा पत्नी को साथ लेकर घर से निकल गया और उसने भी प्रतिष्ठानपुर नगर को छोड़ दिया। कर्मों की लीला बड़ी विचित्र होती है। कभी वह राजा से रंक, धनिक से निर्धन बना देती है तो कभी वह रंक से राजा और निर्धन से सेठ-साहकार बना देती है। जिस धनसार के पास अपार धन था, सैंकड़ों नौकर-चाकर जिसकी सेवा में तत्पर रहते थे, रहने को आलीशान मकान और सुख भोगने के लिए अनेक प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध थी आज वह सेठ गांव-गांव में मजदूरी करके अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहा था। कुछ दिनों के बाद वह भी अपने परिवार को लेकर उज्जयिनी नगरी में पहुंच गया। धन्यकुमार राजा का मंत्री था। उसने नगर की रक्षा के लिए अनेक गुप्तचरों को नियुक्त कर रखा था। उनके माध्यम से मंत्री को प्रतिदिन ज्ञात रहता था कि उसके नगर में आज किन अपरिचित व्यक्तियों का आगमन हआ है। जब धन्यकुमार को परिवारसहित अपने पिता के आगमन की जानकारी मिली तो उसने सारे परिवार को अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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