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सिन्दूरप्रकर था। राजा ने उसे अक्षरचतुष्क पन्ना सौंपते हुए इस समस्या को हल करने का निर्देश दिया। मंत्री को अक्षरानुसारिणी प्रज्ञा प्राप्त थी। उसके आधार पर उसने एक-एक अक्षर का एक-एक चरण पूरा कर श्लोक निर्मित कर दिया। उसने वह श्लोक राजा के समक्ष प्रस्तुत किया। उसमें लिखा था
वा-वामदेवेन मित्रेण, रू-रूपसेनो वनान्तरे। घो-घोरनिद्रावशीभूतो, ल-लक्षलोभान्निपातितः।।
इसका अर्थ था-एक लाख के लोभ के कारण मित्र वामदेव ने घोर निद्रा से वशीभूत रूपसेन को वन के मध्य मार दिया।
राजा इस रहस्यपूर्ण अर्थ को जानकर आश्चर्य में पड़ गया। उसने सोचा-रहस्य बिल्कुल यथार्थ है। अवश्य ही वामदेव ने रूपसेन की हत्या की है। सत्य को उगलवाने के लिए राजा ने वामदेव को एकान्त में बुलाया और सही-सही बात व्यक्त करने के लिए कहा। पर वामदेव कब सत्य बोलने वाला था? राजा ने चारों अक्षरों के अर्थ को सामने प्रस्तुत करते हुए कहा-इन चारों अक्षरों के रहस्यानुसार लगता है कि अपराध तुम्हारा ही है। तुम उसे अभी स्वीकार करो अथवा बाद में स्वीकार करो, स्वीकार तो अवश्य करना ही पड़ेगा। यदि तुम अपराध को सरलता से स्वीकार करते हो तो अच्छा है, अन्यथा दण्ड के बल से उसे स्वीकार कराया जाएगा। वामदेव ने सत्य को छिपाने का भरसक प्रयत्न किया, पर मार के आगे वह कब छिपने वाला था। जब आरक्षी-पुरुषों ने उसे पीटना प्रारम्भ किया तो उसने अपने अपराध को स्वीकार करते हुए कहा-मैंने ही धन के लोभ के कारण रूपसेन की हत्या की है। उसने आदि से लेकर अन्त तक सारा घटनाप्रसंग राजा के सामने रख दिया। राजा ने उसे हत्या और विश्वासघात के जुर्म में देश निकाला दे दिया और सारा धन रूपसेन के माता-पिता को सौंप दिया। ___ इसलिए जैन आगमों में कहा गया- 'लोहो सबविणासणो' अर्थात् लोभ सबका विनाश करने वाला है।
२५. सज्जनता का परिणाम प्रतिष्ठानपुर नगर अपने सुयश से सुदूरदेशों में भी विश्रुत बना हुआ था। उसकी सुख-समृद्धि, ऐश्वर्यशालिता तथा महिमामंडन जन-जन के
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