SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२९ उद्बोधक कथाएं समाचार सुना तो वे तत्काल वामदेव के घर पहुंचे और पुत्र के विषय में पूछते हुए बोले-अभी थोड़े ही दिन पहले तुम्हारा पत्र आया था। उसमें लिखा था कि हम दोनों जल्दी देश आ रहे हैं। तुम यहां अकेले और तुम्हारा मित्र साथ में नहीं, यह बात कुछ समझ में नहीं आ रही है। व्यापार भी तुम दोनों का साथ में था। तुम उसे छोड़कर यहां अकेले कैसे आ गए? __ वामदेव कहे तो क्या कहे? सत्य को ढकने के लिए उसने असत्य का सहारा लिया और दबती जबान से कहा कि हम दोनों आने वाले थे, किन्तु वह धन कमाने की दृष्टि से पुनः वहीं रुक गया। मुझे यहां अकेले ही आना पड़ा। क्या उसने हमारे लिए कोई सन्देश भी भेजा है? रूपसेन के पिता ने पूछा। लम्बा चौड़ा संदेश तो उसने नहीं दिया, शीघ्रता में उसने मात्र चार अक्षर ही लिखकर दिए हैं। वे चार अक्षर कौन से हैं? पिता ने शंकित होते हुए पूछा। वामदेव ने अपनी डायरी से पन्ना फाड़कर रूपसेन के पिता के हाथों थमा दिया। उसमें 'वा रू घो ल'--ये चार अक्षर लिखे हुए थे। ___ पत्र को पढ़कर पिता विस्मय से भर गया। यह कैसा पत्र! सर्वथा रहस्यपूर्ण। कुछ समझ में नहीं आ रहा था और साथ में दाल में कुछ काला है', ऐसा भी प्रतीत हो रहा था। अनेक भाषाविज्ञ, वकीलों तथा बुद्धिमान् लोगों को वह पत्र गुत्थी सुलझाने के लिए दिया गया। पर कोई भी उस पत्र को नहीं समझ सका। अन्त में रूपसेन का पिता राजा के पास पहुंचा और एकान्त में पत्र को निवेदित करते हुए बोला-महाराजन्! मेरे पुत्र रूपसेन और वामदेव-दोनों में प्रगाढ मैत्री थी। दोनों कमाने के लिए परदेश गए हुए थे। वामदेव का यहां एकाकी आना संशय पैदा करता है। उससे लगता है कि मेरे पुत्र की हत्या की गई है। वामदेव के द्वारा यह पत्र आया है। इसमें मेरे पुत्र का सन्देश चार अक्षरो में अंकित है। इन चारों का आप क्या तात्पर्य समझते हैं? राजा ने उन चारों अक्षरों को पढा। अपने मन्त्रियों, गणमान्य व्यक्तियों तथा सांसदों से भी वह पत्र पढवाया, पर कोई भी उसके हार्द को नहीं पकड़ सका। सभी चक्कर में पड़ गए। राजा का एक भूतपूर्व वृद्ध मन्त्री था। वह बड़ा ही रहस्यवादी और बुद्धिमान् व्यक्ति माना जाता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy