________________
३२८
सिन्दूरप्रकर तुम वामदेव हो? फिर मेरे साथ यह विश्वासघात-चिल्लाते हुए रूपसेन ने कहा। ___ तुम मेरे आधे धन के मालिक हो। तुम इस धन को न ले सको, इसलिए मैं तुम्हारा काम तमाम करना चाहता हूं-वामदेव बोला।
मित्र! तुम सारा धन ले लो, किन्तु ऐसा अधम कार्य तो मत करो। मेरे वृद्ध माता-पिता के दिन मेरे बिना कैसे बीतेंगे? उनका जीना दूभर हो जाएगा। तुम मुझे जीवनदान दे दो, मेरे साथ ऐसा धोखा मत करो, यह कहता हुआ रूपसेन आंखों से पानी बहाता हुआ गिड़गिड़ा रहा था, जीवन की भीख मांग रहा था।
वामदेव ने उसे दो टूक जवाब देते हुए कहा-मैं तुम्हारी बातों में आने वाला नहीं हूं। मैं तो तुम्हें जान से ही मारकर दम लूंगा। तुम्हें अपने मां-बाप को कुछ कहना हो तो बोल दो, वरना मौत का वरण करो।
रूपसेन ने अपनी जबान से केवल 'वा रू घो ल' इन चार अक्षरों का ही उच्चारण किया। एकाएक छुरा गर्दन पर चला और वह चिरनिद्रा में सो गया। मित्र मित्र से बिछुड़ गया और उस क्रूरता तथा विश्वासघात का साक्षी बना वह निर्जन वन। तत्काल वामदेव ने उन चारों अक्षरों को अपनी डायरी में नोट कर लिया और प्रभात होते ही वह सारा धन लेकर आशंका और भय के साथ वहां से रवाना हुआ। मन ही मन वह चारों अक्षरों के तात्पर्य को समझने का प्रयत्न कर रहा था और साथ में अपने कुकृत्य से भी क्षुब्ध था। आखिर वह मन को मसोस कर उसे आश्वस्त कर रहा था कि उसने जो कुछ किया है वह उचित ही किया है, मार्ग को निरापद बनाया है, अब उसे शंकित होने का भय क्यों?
रूपसेन द्वारा उच्चारित चारों अक्षरों के अर्थ को न समझने के कारण उसने यही सोचा-शायद मित्र ने मौत के भय से इन शब्दों को अपने मुंह से निकाल दिया है। वैसे इनका कोई अर्थ नहीं निकलता।
वामदेव प्रतिदिन चलता हुआ अपने नगर में सकुशल पहुंच गया। अपने परिवार वालों से मिला। सभी ने उसका स्वागत और सत्कार किया, कुशमक्षेम का समाचार पूछा। तत्पश्चात् सगे-संबंधियों ने उससे यात्रा के विषय में पूछा। वामदेव ने रोमांचित ढंग से आदि से लेकर अन्त तक उसका वर्णन कर दिया। पर सभी का एक ही प्रश्न था कि तुम्हारा मित्र रूपसेन कहां है? उसे तुम कहां छोड़ आए हो? इस विषय में वामदेव मौन था। रूपसेन के माता-पिता ने भी जब वामदेव के आने का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org