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उद्बोधक कथाएं
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लोभ के दावानल ने उस चिन्तन को यह मानकर स्वाहा कर दिया कि कौन किसका, कौन पराया? धन है तो सभी अपने हैं, नहीं है तो कौन किसको पूछता है?
उधर रूपसेन का अन्तर्मानस बिल्कुल निश्छल और पापरहित था। उसके मन में मित्र के प्रति घनिष्ठता, पूर्णविश्वास और समर्पण का भाव था। वह अपने मित्र वामदेव को अपने सगे भाई से भी अधिक मानता था। धन के प्रति भी उसका उतना अधिक आकर्षण नहीं था। इसलिए धन को लेकर उसने कभी अनिष्ट चिन्तन किया ही नहीं। ___ दोनों मित्र 'धर कूचा धर मंजला' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए स्वदेश की ओर बढ़ रहे थे। काफी मार्ग तय हो चुका था। एक दिन उनको बड़ा जंगल पार करना था। सूर्य भी अस्त हो चुका था। बड़ी जोखिम साथ लेकर वे रात्रि में आगे बढ़ना नहीं चाहते थे, इसलिए एक सुरक्षित स्थान देखकर उन्होंने वहीं रात्रि बिताने का निर्णय किया। उस दिन धन वामदेव के पास था। निर्जन वन। आस-पास में कोई बस्ती नहीं। एकदम सुनसान। चारों ओर घोर अन्धेरा और वन्य पशुओं की आवाजें। मित्र वामदेव अपनी कर्तव्यनिष्ठा से धन की रक्षा करता हुआ रात को पहरा दे रहा था और पथ के श्रम से थका हुआ रूपसेन निश्चिंत होकर सोया हआ था। एकाएक वामदेव के मन में पाप उभरा कि आज अवसर अच्छा है। अटवी बिलकुल निर्जन है। मित्र रूपसेन गहरी नींद में है और छुरा भी मेरे पास है, क्यों नहीं आज ही इसका काम तमाम कर दिया जाए। ऐसा सोचकर उसने हाथ में छुरा लिया और सोए हुए रूपसेन के गले पर चलाने के लिए वह उसकी छाती पर बैठ गया। यह एक सचाई है कि मनुष्य में जब क्रूरता और दानवता का उदय होता है तब वह चारों ओर से बेभान हो जाता है। आज मित्र वामदेव भी धन के लोभ में मित्र के खून का प्यासा बना हुआ था। विश्वास, प्रीति और घनिष्ठता को लात मारकर केवल धन के पीछे दौड़ रहा था।
निद्राधीन रूपसेन अपनी छाती पर भार का अनुभव कर एकदम चौंका और हड़बड़ाता हुआ जाग उठा-अरे! कौन दुष्ट मेरी छाती पर बैठा है? मित्र वामदेव! तुम कहां चले गए? तुम दौड़ो, मुझे बचाओ। वामदेव ने उसके पैरों को दबाते हुए कहा-मैं ही वामदेव हूं। बोलो, तुम नींद में किसे पुकार रहे हो?
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