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________________ ३२६ सिन्दूरप्रकर दोनों मित्रों ने अपने देश लौटने का निर्णय कर लिया। निर्णय के अनुसार उन्होंने अपना सारा काम भी समेटना प्रारम्भ कर दिया। कुछ ही दिनों में काम के निपट जाने पर उन्होंने अर्जित धन को रत्न आदि के रूप में भुना लिया। उनको एक नौली में बांधा और वे अपने देश की ओर रवाना हो गए। रास्ते का मामला, बीहड़ मार्ग, चोर-लुटेरों का भय और पास में भारी जोखिम को देखते हुए उन्होंने एक व्यवस्था कर दी कि एक दिन एक मित्र इस नौली को संभाल कर रखे दूसरे दिन दूसरा मित्र। जिस दिन जिसके पास धन हो वह रात को पहरा दे, जिससे दूसरा मित्र निश्चिंत रूप से नींद ले सके। इस प्रकार व्यवस्थापूर्वक धन की रक्षा करते हुए दोनों मित्र आनन्दपूर्वक मार्ग तय करने लगे। ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे थे, मार्ग भी उन दोनों की सुविधानुसार पार हो रहा था। कभी वे पांच कोस चलते तो कभी दस कोस। मार्गगत मंजिलों को देखकर ही उनकी यात्रा चल रही थी। नीतिकार कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति के सारे दिन एक समान नहीं होते। उनमें उतार-चढ़ाव होता रहता है। विचार भी सदा एक समान नहीं रहते। उनमें भी परिवर्तन होता रहता है, कभी अच्छे विचार बुरे विचारों में बदल जाते हैं तो कभी बुरे विचार अच्छे में। यह कालचक्र का परिवर्तन मनुष्य को विविधरूपों में रूपायित कर देता है। इसलिए व्यक्ति में कभी मैत्री का भाव प्रकट होता है तो कभी शत्रुता का। कभी साहूकार व्यक्ति चोर हो जाता है तो कभी चोर व्यक्ति साहूकार हो जाता है। यह परिवर्तन कभी निमित्तों के कारण होता है तो कभी भावजन्य। ___ जो वामदेव अपने मित्र रूपसेन को देखे बिना नहीं रह सकता था वही आज धन के लालच में संकल्प-विकल्पों में उलझ रहा था। रह-रहकर उसके मन में आ रहा था कि नगर पहुंचते ही यह धन दो पांतियों में बंट जाएगा। यदि रूपसेन को कहीं मार्ग में ही ठिकाने लगा दिया जाए तो सारे धन पर मेरा अधिकार हो जायेगा। इस अनर्थ चिन्तन का केन्द्रबिन्दु था--धन का लोभ। लोभ के कारण व्यक्ति क्या कुछ नहीं करता, क्या-क्या नहीं सोचता? उसके कारण वह प्रीति, मैत्री और विनम्रता को भी खूटी पर टांग देता है और धन को सिरहाने रखता है। पुनः वामदेव ने सोचा कि हम दोनों मित्र हैं, दोनों में घनिष्ठ प्रीति है, एक दूसरे पर पूरा विश्वास है, फिर यह अकृत्य, अनाचरणीय, कुत्सित और अमानवीय चिन्तन क्यों? किन्तु दूसरे ही क्षण अन्तर्मन में सुलगते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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